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42/श्री दान-प्रदीप
उस भीम के अपने ही गुणों के सदृश एक पुत्र हुआ। कार्य कारण के अनुकूल ही होता है। अतः वह पुत्र भी पिता के समान प्रकृति को ही प्राप्त था। उसकी प्रवृत्ति अपने मनोनुकूल देखकर भीम अत्यन्त उल्लसित होता था। प्रायः अपने समान गुणों को अपनी सन्तान में देखकर माता-पिता आनन्दित ही होते हैं।
एक बार अपने अन्तिम समय को प्राप्त होने पर पिता ने पुत्र से कहा-“हे पुत्र! भारवहनादि महान क्लेश करके मैंने लाख रूपये इकट्ठे किये हैं। उन्हें निधान के रूप में स्थापित करके मेरी तरह आजीविका में तुम तत्पर रहना। तूं स्वयं भी नवीन द्रव्य उपार्जित करके उसका 'योग-क्षेम करना।"
उसके बाद भीम की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र भी भारवहन का कार्य करने लगा। उसकी कृपणता पिता की अपेक्षा थोड़ी-बहुत भी कम नहीं थी। उसने भी अनुक्रम से लक्ष द्रव्य का उपार्जन किया। अपनी मृत्यु के समय उसने भी अपने पुत्र को वही शिक्षा दी, जो उसे उसके पिता ने दी थी। वह पुत्र भी अपने पिता से दुगुना कृपण था, अतः उसने अपने पिता को लज्जित नहीं किया। शुभ लक्षण रहित उसने भी उसी प्रकार एक लाख द्रव्य का उपार्जन किया। तीन लाख द्रव्य निधान में छोड़कर वह भी समयानुसार मरण को प्राप्त हुआ। उसके धनराज नामक पुत्र था। वह भी अपने पूर्वजों से ज्यादा कृपण था। अतः वह भी अपने कुलाचार में तत्पर हुआ।
उसके प्रशस्त गुणवाली धन्या नामक पत्नी थी। वह धर्म व उदारता के गुणों से शोभित थी। बगुले के पास राजहँस की तरह, कांच के पास नीलमणि की तरह और निर्भागी के पास लक्ष्मी की तरह उस धनराज के पास वह धन्या शोभित होती थी। अहो! विधाता की कितनी निःसीम अविवेकिता! कि जिसने ऐसे अधम पुरुष के साथ ऐसी उत्तम स्त्री का समागम करवाया अथवा तो इस धनराज का पूर्वकृत सौभाग्य उदय में आया था, जिससे कि उसके घर को अलंकृत करनेवाली ऐसी सन्नारी रूपी गृहिणी मिली थी।
वह धनराज तीन लाख सोनैया का स्वामी होने के बावजूद भी स्वयं निर्धन की तरह निरन्तर निन्दित कार्य (मजूरी) किया करता था। धनिक के उस धन को धिक्कार है! साधु, बंधु, गुरु व देव वर्ग की और तो वह देखता भी नहीं था, तो उनका सत्कार करना तो बहुत दूर की बात थी। कुकर्म करने में सजग और धर्म से पराङ्मुख अपने पति को देखकर वह पतिभक्ता सन्नारी धन्या अत्यन्त खिन्न होती थी।
1. अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति योग कहलाती है। 2. प्राप्त वस्तु का रक्षण करना क्षेम कहलाता है।