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43/श्री दान-प्रदीप
एक बार किसी अवसर पर विशाल बुद्धि से युक्त धन्या ने अपने पति से कहा-"हे स्वामी! रंक मनुष्य की तरह ऐसे कुकर्म करते हुए आपको लज्जा नहीं आती? लोभ के कारण आपकी बुद्धि अंधी हो गयी है, जिससे कि भारवहन करते हुए आपको रात और दिन का पता ही नहीं चलता। हमारे घर में आपके द्वारा और आपके पूर्वजों द्वारा उपार्जित पुष्कल धन है, उसमें से भोग के लिए या दान के लिए आप जरा भी खर्च नहीं करते और इतना कष्ट उठाते हैं, वह किसलिए? तृष्णा से पीड़ित आपके सभी पूर्वज महाकष्ट से धन कमाकर और निधान में स्थापित करके उस धन को यहीं छोड़कर परलोक में चले गये। उन्हें क्या मिला? आप भी थोड़े ही दिनों में उन्हीं की स्थिति को प्राप्त करके उनके ही मार्ग पर जानेवाले हैं। अतः आपके इस धन और इस जीवन को धिक्कार है! और हे प्रिय! आज आपके मुख पर अचानक यह श्यामत्व क्यों दिखायी देता है? आप बार-बार उष्ण व दीर्घ निःश्वासें क्यों छोड़ रहे हैं? क्या आपको कोई व्याधि बाधित कर रही है? या आपके कार्य में कोई हानि हुई है? या आपके निधान में लक्ष्मी का नाश हुआ है? या आपका कहीं कोई अपमान हुआ है?"
यह सुनकर धनराज ने कहा-“हे प्रिये! तुमने जो कुछ भी कहा है, उनमें से कोई भी बात मेरे दुःख का कारण नहीं है। पर आज तुमने ब्राह्मण को जो एक मुट्ठी चने दिये हैं, उसे देखकर मैं वज्र से आहत की तरह पीड़ित हुआ हूं, क्योंकि धन का व्यय मुझे दुःखित करता है। इतना दुःख तो मुझे मेरी मृत्यु समीप आने पर भी नहीं होगा। धन ही मनुष्य की बुद्धि है, धन ही सिद्धि है, धन ही रक्षक है, धन ही गति है, धन ही कीर्ति है, धन ही स्फूर्ति-उत्साह है और धन ही मनुष्यों का जीवन है। हे मुग्धे! तुम इस प्रकार धन का वृथा उपयोग करोगी, तो जैसे ईलि धान्य का नाश करती है, वैसे ही तुम भी एक दिन पूर्वजों द्वारा संचित इस धन का सर्वनाश कर दोगी।" __अपने पति के इस प्रकार के वचनों का श्रवण करके उसकी अमाप कृपणता को जानते हुए पति के चित्त का अनुसरण करनेवाली उस चतुर सन्नारी ने अपने पति से कहा-"हे स्वामी! आज के बाद मैं इस प्रकार का कोई खर्च नहीं करूंगी, जिससे आपको किसी भी प्रकार की पीड़ा हो। पतिव्रता पत्नी तो पति को जो इष्ट हो, वही कार्य करती है। पर जिसमें कुछ भी खर्च न हो, ऐसा कोई सुकृत आप करें, जिससे आपको इस भव में विशाल कीर्ति
और परभव में अच्छी गति प्राप्त हो। आप जिनेश्वर को नमस्कार करें, साधुओं-गुरुओं को नमस्कार करें, उनके मुख से धर्म का श्रवण करें। ऐसे धर्मकार्यों में जरा भी धन का व्यय नहीं करना पड़ता।"
यह सुनकर उस नीच बुद्धियुक्त धनराज ने कहा-"अगर मैं मुनियों को वंदन करूंगा, तो वे वाचाल मुनि परिचित हो जाने से मुझे ठगने लगेंगे। वे कहेंगे कि जिनेश्वर के चैत्य