________________
39/ श्री दान-प्रदीप
में कहा है कि:
वहमारणअब्भक्खाणदाणपरधनविलोवणाईण। सव्वजहन्नो उदओ दसगुणिओ इक्कसि कयाणं। 1 ।। तिव्वयरे अ पओसे समगुणिओ सयसहस्सकोडिगुणो। कोडाकोडिगुणो वा हुज्ज विवागो बहुतरो य।।2।।
भावार्थ :-वध, मारण, अभ्याख्यान देना और पर के धन का हरण करना-ये कर्म अगर एक भी बार किये हों, तो भी इनका विपाक जघन्य से जघन्य भी दसगुणा होता है। अगर यही कर्म द्वेष से किये हों, तो उसका विपाक सौगुणा, हजारगुणा, लाखगुणा, कोटिगुणा अथवा कोटाकोटि गुणा होता है अथवा इससे भी ज्यादा हो सकता है।
उफान पर आया हुआ समुद्र भी कदाचित् भुजाओं के द्वारा रोका जा सकता है, पर पूर्वोपार्जित कर्मों का उदय आय, तो उसे रोका नहीं जा सकता। फिर भी अगर सर्व आश्रव द्वारों का रूंधन करके तीव्र तपश्चर्या की जाय, तो मर्मस्थान का वेधन करनेवाले कर्मों का भी क्षय अवश्य ही होता है। इस विषय में कहा है कि :
पुदि दुच्चिन्नाणं दुप्पडिक्कंताणं वेअइत्ता मुक्खो, नत्थि अवेअइत्ता तवसा वा झोसइत्ता"
पूर्वकृत दुष्ट आचरण के द्वारा अर्जित कर्मों का जिसने प्रतिक्रमण न किया हो, वे कर्म वेदन के द्वारा ही आत्मा से दूर होते हैं, उन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं है या फिर तपस्या द्वारा ही उन कर्मों को दूर किया जा सकता है।"
यह सुनकर विषयों से विरक्त हुए राजा ने कहा-"हे स्वामी! कर्म के मर्म का नाश करने के लिए मुझे प्रव्रज्या प्रदान करें।"
तब गुरुदेवश्री ने भी कहा-"इस कार्य में तुम विलम्ब मत करो, क्योंकि पुण्यकार्य में अत्यधिक विघ्न उपस्थित होते हैं। अतः उसमें प्रमाद करना उचित नहीं है।" ___ मेघनाद कुमार भी कर्म के विपाक से भयभीत हुआ। अतः उसने भी श्रीगुरुदेव के पास चारित्र की याचना की। कौन बुद्धिमान भव से भीरु नहीं होगा? फिर श्रीगुरुदेव ने फरमाया-"हे कुमार! तुम्हारे भोगफल से युक्त निकाचित कर्म अवशेष है। अतः अभी तुम्हारे द्वारा चारित्र ग्रहण कर पाना उचित नहीं है। उस कर्मविपाक के कारण देवों को भी दुर्लभ अविनाशी भोग तुम्हें एक लाख वर्ष तक अवश्य ही भोगना है।"
कुमार ने कहा-"विष के समान ऐसे भोग किस काम के हैं? कि जिनको भोगने से प्राणी परिणामस्वरूप विपत्ति को ही प्राप्त होते हैं।"