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चंव्वालीस
चारित्र चक्रवर्ती प्रत्येक ने चाहा कि वह यहाँ निवास करे, किन्तु वह चला गया। बताओ ! मैं उनकी किस प्रकार हूँ, जबकि वे मुझे पकड़ नहीं सकते, किन्तु मैं ही उनको अपने आधीन करती हूँ।
विश्व का सर्वोच्च प्रहरी हिमालय बता सकेगा, कि इस भारत देश पर तथा दूसरो जगह अपना प्रभुत्व जमाने कितने व्यक्ति, जातियों आदि का पदार्पण नहीं हुआ और अब उनका नाम भी ज्ञात नहीं है। इतिहास के पृष्ठों में जिन देशों की पुरातन युग में वैभवपूर्ण स्थिति बताई जाती है, वहाँ विनाश तथा शून्यता का अखण्ड साम्राज्य है।
महाकवि जिनसेन ने महापुराण में बताया है कि चक्रवर्ती भरतेश्वर विविध देशों पर विजय-प्राप्ति के उपरान्त वृषभाँचल नामक एक सुन्दर पर्वत के समीप पहुँचे। उस समय तक भरतराज अपने को विश्व में अप्रतिम पृथ्वीपति सोचते थे, किन्तु उस पर्वत के पास पहुँचने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि असंख्य शासक इस पृथ्वी के स्वामी बने थे और वे सब चले गए। उस पर्वत पर परम्परा के अनुसार प्रतापी नरेश चक्रवर्ती का नाम उत्कीर्ण रहता है, उस क्रम के अनुसार पर्वत पर अपने नाम की प्रशस्ति अंकित करने को भरतेश्वर तैयार हुए। महाकवि कहते हैं-"चक्रवर्ती भरत ने काकिणी रत्न लेकर ज्योंही वहाँ लिखने को इच्छा की, त्योंही उन्होंने वहाँ हजारों चक्रवर्ती राजाओं के नाम अंकित देखे। असंख्यात करोड़ कल्पों में जो चक्रवर्ती हुए थे, उन सबके नामों से भरे हुए उस वृषभाचल को देखकर भरत को बहुत ही विस्मय हुआ। तदनन्तर जिसका गर्व कुछ दूर हुआ है, ऐसे चक्रवर्ती ने आश्चर्ययुक्त होकर इस भरतक्षेत्र की भूमि को अनन्य-शासन (अन्य के शासन) रहित नहीं माना।" उस समय चक्रवर्ती भरतेश्वर के अन्तःकरण में यह बात अंकित हुई कि विश्व के मध्य उसकी असाधारण स्थिति नहीं है। जब तक मोह का नशा नहीं उतरता, तब मनुष्य अद्भुत कल्पना-जाल में स्वयं को कैदी बनाया करता है। ___मोह पिशाच के द्वारा छला गया जीव प्रभुता पाकर स्वयं का पतन करते हुए दूसरों की दुर्गति का भी कारण बनता है। उदाहरणार्थ वाममार्गियों का प्रश्रय पाकर धर्म का कितना विकृत रूप बनाया गया कि उसका विचार करते ही सच्चे धर्मवालों के हृदय पर वज्रपात-सा होता है। इस वाममार्ग के मुख्य केन्द्र विक्रमशिला, काश्मीर तथा बंगाल
काकिणीरत्नमादाय यदा लिलिखिषत्ययम्। तदा राजसहस्त्राणां नामान्यत्रैक्षताधिराट् ॥ १४१॥ असंख्यकल्पकोटीषु येऽतिक्रान्ताधराभुजः।। तेषां नामभिराकीर्ण तं पश्यन् विसिष्मये ॥१४२॥ ततः किंचित् स्खलद्गर्वो विलक्षीभ चक्रिराट्। अनन्यशासनामेनां स मेने भरतावनीम् ॥ १४३।।
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