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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
तब अंधकार संध्या के विस्तृत लीला विलास का लोप कर आकाश में चारों ओर फैल गया। क्योंकि मलिन हृदय को धारण करने वाले अपनी स्वार्थ साधना में तत्पर रहते हैं और वे दूसरों के उदय को सहन नहीं करते।
२७. गोपे गते चानुरिते न्यराशि, विलोक्य लोके यदराजकत्वम् । जगत् समग्रं स्वनिरर्गलस्वादुपाद्रवद्दस्युरिवान्धकारः॥
जब सूर्य अस्त हो गया और किसी अन्य राजा का उदय नहीं हुआ, संसार में ऐसी अराजकता देखकर मानो अंधकार ने चोर की भांति बे-रोकटोक समूचे संसार को उपद्रुत कर डाला।
२८. नमः कियद् वा कियती धरित्री, ध्वान्तः प्रमातुं परितः किमेषः । अस्मिन् धराकाशतले विशाले, कुतूहलाद् व्यापकतामितोऽयम् ॥
आकाशः वङ्ग है या पृथ्वी--- इसका प्रमाण ज्ञात करने के लिए मानो अन्धकार कुतूहलवश पृथ्वी और आकाश के कोने-कोने में व्याप्त हो गया।
२९. त्यक्त्वान्नपानं गिरिगह्वरादौ, नित्यं तपोऽकार्यऽविकारभावः। वियद्धराव्यापकसिद्धिरेषा, प्राप्ता तमस्तोममहर्षिणाऽतः ॥
इस अंधकाररूपी महान् ऋषि ने आहार-पानी का त्याग कर, गिरिगुफाओं में शुद्ध भावों से नित्य तप तपा है। इसीलिए इसको आकाश और धरा में व्याप्त होने की सिद्धि प्राप्त हो गई है।
३०. तदन्धकारः प्रससार विष्वङ्, मिथ्यात्ववद् भव्यहृदीव तत्र । तद्दर्शनार्थीव तमो विलुम्पन्, राकेन्दुरुद्गच्छति तारकाभ्रे ॥
जैसे संसारी प्राणी के हृदय में मिथ्यात्व फैल जाता है वैसे ही अंधकार भी समस्त संसार में फैल गया। तब भिक्षु के दर्शन के लिए ही मानो, अंधकार का लोप करता हुआ चन्द्रमा ताराओं से जगमगाते हुए आकाश में उदित हुआ।
३१. दिदीपिरेऽभ्राध्वनि धौतधूलो, देदीप्यमानोस्रविमिश्रिताराः।
कान्ते समेते शशिनीव राज्या, मार्गे विकीर्णा कुसुमावलीयम् ॥
१. तस्य भिक्षोः । २. उस्रः-किरण (रोचिरुस्ररुचि"-अभि० २।१३)