Book Title: Bhikshu Mahakavyam Part 02
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 281
________________ सप्तदशः सर्गः २५५ .१४३. यथा रवीणामयने तथा द्वे, येषां हृषीके भवती मया ते। घुणो दकोकः कृमिशङ्खकाद्याः, कथावशेषाः प्रकृताः प्रमादात् ॥ सूर्य के उत्तर और दक्षिण-इन दो अयनों की तरह जिनके दो इन्द्रियां हैं, ऐसे घुण, जलोक, कृमि, शङ्ख आदि द्वीन्द्रिय प्राणियों की प्रमादवश हिंसा हुई हो तो वह मेरा पाप निष्फल हो। १४४. त्रिनेत्रनेत्राणि यथाङ्गमाजां, त्रिणीन्द्रियाणीह भवन्ति येषाम् । पिपीलिका मत्कुणकीटयूकामुखान्यहन्यन्त मयाऽपयोगात् ॥ महादेव के तीन नेत्रों के समान तीन इन्द्रियों को धारण करने वाले कीड़ी, खटमल, कीड़े, जूं आदि त्रीन्द्रिय प्राणियों की अनुपयुक्तता से यदि विराधना हुई हो तो मेरा वह पाप मिथ्या हो । १४५. विमण्डलानीव भवन्ति येषां, स्रोतांसि चत्वारि शरीरिणां ते । पतङ्गभृङ्गणमक्षिकाद्याः, प्रमापिता. वा परितापिता वा ॥ ___ दिग मण्डल की तरह चार इन्द्रियों को धारण करने वाले पतंग, भ्रमर, वृश्चिक, मक्षिका आदि चतुरिन्द्रिय प्राणियों को यदि परितापना दी हो या हिंसा की हो तो मेरा वह पाप मिथ्या हो। १४६. शयस्य शाखा इव जन्मभाजां, येषां हृषीकाणि च सन्ति पञ्च । जलस्थलव्योमचराः कथंचिदालेख्यशेषत्वमवापितास्ते ॥ हाथ की अंगुलियों की भांति जिनके पांच इन्द्रियां हैं, ऐसे जलचर, स्थलचर, उरपुर, भुजपुर और खेचर आदि पञ्चेन्द्रिय जीवों की यदि हिंसा की हो तो मेरा पाप मिथ्या हो। . १४७. जिनेश्वराजोदितशारदेन्दुज्योत्स्नासमुल्लासितसूरताब्धौ । मत्स्यायमानेन मुनीन्दुनेवासुमद्गणोऽमानि निजात्मवन्नो ॥ जिनेन्द्र की आज्ञारूप शरद् चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से बढ़ी हुई वेला वाले दयासागर में मत्स्य की तरह रहने वाले आचार्यों के समान ही यदि मैंने 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की उक्ति को सार्थक न बनाया हो तो मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो। १४८. रुष्टेन रोषादिव लोलुभेन, लोभाविवातङ्कवतेव भीतेः । . विदूषकेनेव हसान् मया यत्, किञ्चिद् व्यलीकं सहसाप्यभाषि ॥ रोष से रुष्ट होकर, लोभ से लोभी बनकर, भय से भयभीत होकर तथा एक विदूषक की भांति हास्य से अथवा सहसा भी कभी मैंने असत्य का आचरण किया हो तो मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । .. ,

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