Book Title: Bhikshu Mahakavyam Part 02
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 303
________________ अष्टादशः सर्गः मोह से विलग होकर मुनियों ने स्वामीजी के शव को गृहस्थों को सौंप दिया और खिन्नचित्त से चार चतुर्विंशति स्तव ( लोगस्स) का ध्यान किया । ४६. सन्त उपोषुरिमेऽपि च मुन्यो, गौरवतो निखिला गुरुभक्ताः । तविरहो बहु दुःसहनीयः, सेहुरगाधपराक्रमतस्तम् ॥ उन सब गुरुभक्त साधु-साध्वियों ने बड़े ही गौरव के साथ उपवास किया और उनके अति दुःसह्य विरह को भी अत्यधिक धेर्य के साथ सहन किया । ४७. सप्तसुयामिकसंस्तरणं तद्, वृत्तपतेः समुपैत् व्यशनस्य । ईदृशपूर्ण समाधिनिधानं मृत्युरुपंति महाविरलानाम् ।। इस प्रकार आपकी समाधिपूर्ण मृत्यु सात प्रहर के तिविहार संथारे में हुई । इस प्रकार की समाधिपूर्ण मृत्यु अत्यंत विरल व्यक्तियों की ही होती है । ४ ४ ४८. भावचरित्रयुगाश्रमवर्षे, श्रेष्ठतिथौ गुणचन्द्र मितायाम् । दोषवदङ्गमिदं परिहृत्य, सत्यवदुत्तममाप सुरौकः ॥ २७७ आपने चौवालीस वर्षों तक भावदीक्षा की आराधना की और अन्त में त्रयोदशी के दिन दोषों की भांति ही इस देह को छोड़ सत्य-ग्रहण की भांति उत्तम स्वर्गधाम को प्राप्त हो गए । ४९. नभोलेश्यारत्नावनिमितशरभाद्र विमल:, त्रयोदश्यां सिद्धक्षितिजवरवारे मरुधरे । सिरीयारीद्रङ्गे प्रशमरसलीनः परिवृतो, दिने शेषे सार्द्धप्रहर उबगात् स्वर्गसवने ॥ विक्रमीय संवत् १८६० में, भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी के दिन, सिद्धयोग, मंगलवार, डेढ प्रहर दिन अवशिष्ट रहते मरुधर देश के सिरियारी नामक नगर में उपशान्त रस में झूलते हुए आचार्य भिक्षु ने स्वर्गलोग के लिए प्रस्थान कर दिया । ५०. वियोगावेतावृकुचरणकरणाराधकगुरो निसर्गान्नेत्राभ्यामविरलगलन्नीरनिवहाः । विमानेऽध्यारोप्य व्यधिकदशखण्डेन रचिते, जना रूप्योच्छालः समकृषत तस्यैहिकमहम् ।

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