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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् इन लक्षणों से उन महर्षि को अवधिज्ञान का होना संभव सा प्रतीत होता है, परन्तु निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता । यह तत्त्व तो केवली ही जान सकते हैं। ४०. धीरतया लपनान्न चतुर्य, तद्वचनं प्रतिबुद्धमशेषः । उत्थितवान् स्वयमेव तदानीं, ध्यानसदासननो विरराज ॥
चौथी बात आपने धीरे-धीरे धीमे स्वरों में कही। किसी को भी वह समझ में नहीं आई। उस समय आप बिछोने से स्वयं उठे और उत्तम ध्यानासन में विराज गए। ४१. तत्समये न मनागपि बाधा, तस्य शरीरमरोगमुदारम् । श्रीजिनवच्छुशुभे सुतरां स, सान्द्रसमाधिसमुद्रसमुद्रः॥
उस समय आपके शरीर में किञ्चित् भी बाधा प्रतीत नहीं हो रही थी। आप नीरोग और स्वस्थ से लग रहे थे। तब आप सघन समाधि में लीन समुद्र की तरह शांत और जिनेश्वर देव की तरह सुशोभित हो रहे थे। ४२. स्यतिकरः स्वककर्म समाप्य, रक्षितमस्तकवेष्टनसूचिः ।
हृष्टमनाः सुमना इव दृष्ट्या, दर्शनमस्य विधाय समूचे ।। ___ इतने में दर्जी वैकंठी बनाने का अपना सारा काम पूरा कर सूई को पगड़ी में खोंस कर प्रसन्न मन से विकसित नयनों से आपको निहारता हुआ बोला
४३. कार्यमकार्षमहन्तु समप्रमस्य विलम्ब इवास्ति किमद्य । एवमुदीरित एव निजासून्, ध्यानमयासनतः सुखमौज्सत् ॥
'मैंने तो अपना सारा काम पूरा कर दिया, पर क्या स्वामीजी के अभी देरी है ? उसके इस कथन के साथ ही आपने ध्यान आसन में बैठेबैठे ही सुखपूर्वक प्राणों का विसर्जन कर दिया।
४४. ध्यानविराजितयौगिकमुद्रामिश्रितशान्तरसरुपविक्षः । संप्रविलोकयतां समपुंसां, स्वर्गरमां समलङ्कृतवान् स॥
ध्यानस्थ योगमुद्रा में स्थित, शान्तसुधारस में ओतप्रत आचार्य भिक्षु लोगों के देखते-देखते स्वर्गस्थ हो गए। ४५. स्वामिशवं गृहिणां च गृहिन्यो, व्यत्ससृजुर्मुनयो हृतमोहाः ।
ध्यानमकार्षुरुदासमनस्कास्तीर्थकृतां स्तवनस्य चतूर्णाम् ॥