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अष्टादशः सर्गः
१. श्रेष्ठसमाधिनिधेर्मुनिभिक्षोः, प्रेत्यनिजात्महितं प्रदिवृक्षोः । तस्य कृतानशनस्य समज्ञा, सौरभवत् प्रसूता शुभसञ्ज्ञा ॥
श्रेष्ठ समाधि के भण्डार परलोक के लिए आत्महित को ही देखने के इच्छुक, ऐसे कृत संस्तारक (संथारा) भिक्षु स्वामी की शुभ नाम वाली (लब्ध ख्याति) कीर्ति सुरभि की तरह चारों ओर फैल गई ।
२. तच्छ्रवणोत्सुकतामितलोका:, स्फूर्जदशोकवटुज्झितशोकाः । तं परिवृत्य रता गुणमुग्धा, भृङ्गगणा इव दर्शनलुब्धाः ॥
उस अनशन के शुभ संवाद को सुनकर अत्यधिक लोग विकसित अशोक की भांति शोक-विमुक्त होकर उनके दर्शनों में ही लुब्ध हो गये । वे गुणमुग्ध व्यक्ति उनको चारों ओर से घेरकर भ्रमरों की भांति उनकी उपासना में रत हो गए ।
३. द्रष्टुमनः समुपागतहृष्टस्त्रीपुरुषाधिक सङ्कुलिताऽभूत् यनगरेऽपि न मातुमधीशा, स्वापणपरिजायत तुच्छा ॥
दर्शनों के लिए आई हुई प्रसन्न जनता की भीड़ से चारों ओर संता ही संकीर्णता दिखाई देने लगी और ऐसा लगने लगा कि मानों इस अपार जन समूह को समाने में यह नगर असमर्थ -सा है और उस भीड़ से नगर के वे विशाल बाजार भी छोटे-छोटे से प्रतीत होने लगे ।
४. जीवनतोऽपि निरन्तरवैरास्तेऽपि तवाद्भुतचित्रितचित्ताः । यत्र शमः स्वयमेव पराढ्यस्तत्र न कि रिपवोऽरिपवः स्युः ॥
जीवन भर से चले आ रहे चिरकालीन बंर वाले व्यक्ति भी उस गये । इसमें आश्चर्य ही शत्रु भी मित्र नहीं बन
समय अद्भुत और विचित्र विचारों वाले हो क्या है ! शांति से ओतप्रोत आत्मा के समक्ष क्या जाते ?
५. नास्तिकताम्रघगता पुरुषालिरास्तिकम' वमिता मुदिता सा । दुर्वसुधाऽपि सुधाम्बुदसेकात् किं न भवेद्धरिता भरिता सा ॥