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अष्टादशः सर्गः
११. केचन सासुकनीरनिवृत्ताः केऽपि वनस्पतिमोचनदक्षाः । केचन रात्र्यशनादवरुद्धाः केऽपि चतुर्विधवत्मनमुक्ताः ॥
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१२. केप्यनला निलभूवधहाराः केचन दुर्व्यसनप्रतिकाराः । केsपि कषायमदापरनिन्देर्ष्याविक थापकथापरिहाराः ॥
१३. केचन शीलमधुर्मधु यावज्जीवमशेषसवृत्तिसकोट्टम् । एवमनेकविधाभिरनिन्द्यं, तत्त्यजुरङ्गिगणास्तरणार्हाः ॥
कुछ व्यक्ति हरियाली का त्याग व्यक्ति रात्रिभोजन छोड़ रहे थे त्याग ले रहे थे ।
उस समय कुछ व्यक्ति सचित्त पानी पीने का त्याग कर रहे थे तो करने के लिए लालायित हो रहे थे । कुछ और कुछ व्यक्ति रात्री में 'चोविहार' का
(त्रिभिर्विशेषकम् )
कुछ व्यक्ति अग्नि, हवा और पृथ्वी की हिंसा का कुछ व्यक्ति सप्त कुव्यसनों का कुछ व्यक्ति कषाय, मद, परनिन्दा, ईर्ष्या, विकथा और अपकथा आदि-आदि का त्याग कर रहे थे ।
१४. अस्तमितेऽमृदुरोचिषि तत्रावश्यकमाकलितुं प्राह ततो विनयोत्तम भारी मालमुनि
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कुछेक व्यक्ति यावज्जीवन तक नवबाड़ और कोट सहित सुन्दर शील को स्वीकार कर रहे थे । इस प्रकार वहां उपस्थित भव्यप्राणी अनेक प्रकार के प्रशस्त प्रत्याख्यान ग्रहण कर रहे थे ।
श्रमणेशः । वृषवेशन कृत्यं ॥
उस दिन सूर्यास्त होने पर पूज्यश्री ने प्रतिक्रमण किया और फिर परम विनीत शिष्य मुनि भारीमालजी को धर्म देशना देने का आदेश दिया ।
१५. श्रोत्रपुटः परिपीय तदीयं वाग्विशदामृतमुत्तरमाह । किं तव संस्तरणे मम नाथाख्यानकृतावधिकं सुमहत्त्वम् ॥
पूज्य श्री की अमृतमय वाणी द्वारा प्रदत्त आदेश को सुनकर प्रत्युत्तर देते हुए मुनि भारीमालजी ने कहा - प्रभो ! आपके इस संथारे में मेरा व्याख्यान देना क्या महत्वपूर्ण है ?
१६. व्याहियतेस्म ततः स मुनीन्द्रः, कोप्यपरोऽनशनं यदि कुर्यात् । तनिकटेऽप्युपगम्य विनोदाद्, धर्ममयं वितराम्युपदेशम् ॥