Book Title: Bhikshu Mahakavyam Part 02
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 289
________________ सप्तदशः सर्गः २६३ १८. एकादिवश्यामहिफेनकाभ्यामृते परित्यज्य समस्तभोज्यम् । जगाव नातःपरमत्तुमिच्छा, मनाङ् मदीयेऽति विचारणीयम् ॥ एकादशी के दिन आपने कहा-अफीम (दवा के रूप में) और पानी के अतिरिक्त आज मुझे तीनों आहार का परित्याग है। अब आगे किञ्चित् मात्र भी आहार ग्रहण करने की मेरी इच्छा नहीं है । यह सबको विचार कर लेना चाहिए । १८९. कदाचिदात्माशनतो न तृप्तो, यथेन्धनाद वह्नरिवार विश्वे । शिवंगमीव स्वजनानुषङ्ग, तस्मात्तमाहारमहं जिहासु ॥ जैसे इन्धन से अग्नि तृप्त नहीं होती, वैसे ही आहार से यह आत्मा कभी तृप्त नहीं होती। जैसे मोक्षार्थी व्यक्ति अपने स्वजनों का ममत्व छोड़ देता है वैसे ही मैं इस आहार को छोड़ देना चाहता हूं। १९०, मध्ये हि मे मन्दिरमिन्द्रियाणां, वैवात् क्षयेद् यद् क्षणिक क्षणेऽस्मिन् । तेनैव सत्राऽनवधानताऽपि, समूलतो नश्वरतां प्रयातु ॥ देवयोग से यदि यह नश्वर शरीर इसी क्षण नष्ट हो रहा हो तो इस नश्वर शरीर के साथ-साथ मेरी अनवधानता-अजागरूकता का भी मूलतः नाश हो जाए। १९१. षष्ठं तपः शुक्लविमर्शवद् द्वादश्यामिवान्त्यप्रभुनाऽत्र तेन । अशीलि निर्वाणसुखाथिनाऽनाहाराय सज्जेन व्यभावि सद्यः ।। द्वादशी के दिन आपने शुक्ल ध्यान की तरह ही इस षष्ठं तप (दो दिन के तप) को वैसे ही स्वीकार किया जैसे अनाहार के लिए सज्जीभूत मोक्षार्थी अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने किया था। १९२. इतस्तनोः पौद्गलिकी च शक्तिर्गीष्मर्तुवल्लीव कृशा भवन्ती। इतोधिका चेतनशक्तिरस्य, वर्षर्तुवल्लीव विवर्द्धमाना ॥ एक ओर शारीरिक शक्ति ग्रीष्मकाल में लता की तरह सूखती जा रही थी तथा दूसरी ओर वर्षावास में बढ़ती हुई लता के समान आत्मशक्ति बढ़ती जा रही थी। १९३. शरीरशक्तौ च तदात्मशक्ती, द्वन्द्वं यशोथं प्रतिवर्तमानम् । लक्ष्म्यां च बुद्धाविव तद् द्वितीया, जैत्रा जयन्ती वरबुद्धिवत् सा॥ तब यशःप्राप्ति के लिए शारीरिक शक्ति और आत्मिक शक्ति के मध्य वैसा संघर्ष उत्पन्न हुआ मानो लक्ष्मी और बुद्धि (सरस्वती) के मध्य संघर्ष हो रहा हो। परन्तु अन्त में बुद्धि की भांति आत्मिक शक्ति की ही विजय हुई।

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