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श्रीभिक्षमहाकाव्यम् १८२. मैत्री समाधाय शुभां समस्तैः, क्षमापनं च क्षमणं कृतं सत् ।
आत्मावतारीह यथार्यरूपं, न किन्तु तद्दार्शनिक क्षणस्थम् ॥
आचार्य भिक्षु ने शुभ मैत्रीभाव को हृदय में धारण कर सभी से क्षमायाचना की और सबको क्षमा प्रवान की । उनका वह क्षमा का आदानप्रदान आत्मा में उतरा हुआ और यथार्थ था। वह दिखावटी और क्षणस्थायी नहीं था।
१८३. आराधयामास स पर्वराजमाध्यात्मिकं चात्मविदां वरेण्यः ।
रात्री तृषाघोरपरीषहोऽभूत, समाधिना सासहिरेष पूज्यः।।
ऐसे उस आत्मज्ञानी ने इस आध्यात्मिक पर्वराज की आराधना की, रात्रि में तृषा का घोर परीषह उत्पन्न हुआ, उसे भी आपने पूर्ण समाधि के साथ सहन किया।
१८४. स्वल्पं कृतं पारणकं च षष्ठ्यामादायि तेनौषधमप्यहोऽत्र ।
संवृत्तवान्तेरथ तद्दिने प्रात्याक्षीत् त्रिधाहारमृषीश्वरोऽयम् ॥
सूर्योदय होने पर छठ के दिन आपने थोड़ा सा पारणा किया और औषध भी ग्रहण किया, पर वमन हो जाने के कारण फिर आपने तीनों ही आहारों का त्याग कर दिया।
१८५. स्तोकाशनात् सप्तममष्टमं च, दिनद्वयं तस्य जगाम शान्त्या।
दृष्ट्वा तथा श्रीमुनिखेतसीजीरनुग्रहीत् तद् विनिवृत्तये तम् ॥
सप्तमी और अष्टमी के दिन थोड़ा-थोड़ा आहार लिया। दोनों दिन शान्ति से निकले । यह देखकर मुनि श्री खेतसीजी ने आहार त्याग न करने की प्रार्थना की।
१५६. ततोऽभ्यधात् सोग किमङ्गमोहैः, क्षीणं शरीरं सृजता मयाऽद्य ।
वैराग्यमेवाभिविवर्द्धनीयं, वैराग्यमेवात्मधनं प्रधानम् ॥
तब आपने कहा-अब इस शरीर पर क्या मोह है। अब तो इसे क्षीण करते हुए वैराग्य वृद्धि करना ही उचित है। क्योंकि वास्तव में वैराग्य ही तो श्रेष्ठ आत्मधन है।
१८७. तिथौ नवम्यां च मुदा दशम्यामाजन्मसंस्तारकथामकार्षीत् ।
परन्तु तत् खेतसिभारिमालाग्रहाच्चकाराशनमल्पमात्रम् ॥
फिर आपने नवमी और दशमी के दिन हर्ष से आमरण अनशन (संथारा) करने की बात कही, पर भारिमालजी स्वामी और खेतसीजी स्वामी का आग्रह होने से आपको अल्प मात्रा में आहार लेना पड़ा।