Book Title: Bhikshu Mahakavyam Part 02
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 292
________________ २६६ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् २०५. शक्रो यथा शक्रसमास्वऽयं हि, शक्रस्तवं सिद्धजिनेन्द्रयोश्च । प्रगुण्य सर्वाभिमुखे स यावज्जीवं त्रिधाहारमपोह्य शान्त्या ॥ २०६. शमी शमोगर्भमिवाऽतितेजा, बिभ्रद् विभूत्या प्रणिधानमन्तः । दधार संस्तारकमात्मविद् द्वादश्यां तियो स्वात्मगुणातिलीनः । (युग्मम्) देवसभा में शक की तरह ही आपने सिद्ध और अरिहन्तों की स्तुति कर, 'नमोत्थुणं' पाठ का उच्चारण करते हुए सबके सामने आपने शान्ति पूर्वक यावज्जीवन के लिए तीनों आहार का प्रत्याख्यान कर दिया। जैसे खेजड़ी अति तेज अङ्गारों को धारण करती है वैसे ही शक्ति से धर्म ध्यान को धारण करते हुए आत्मज्ञानी मुनि भिक्षु ने द्वादशी के दिन आमरण अनशन स्वीकार किया और आत्मगुणों में अत्यन्त लीन हो गये । २०७. महाविरागानिरमायि तेन, संस्तारकं साधुविधेस्तदानीम् । धन्यो भवान् धन्य इति प्रघोषो, हरिनिकुञ्जोदरपूरकोऽभूत् ॥ परम वैराग्य भाव से आपने संथारा किया, इसलिए 'धन्य हो', 'धन्य हो', ऐसे धन्य-धन्य के नारों से दिङमण्डल गूज उठा। २०८. इदं वृश्यं दृश्यं नयनविषयीकृत्य सुतरा मिदं श्रव्यं श्रव्यं श्रवणतिथितामाप्य नितराम् । न केषाञ्चिद् रोमोद्गमनमभितोऽभूद् भविनणां, न केषाञ्चिद् वक्त्रात् स्तवनततयो विस्तृतिमिताः ॥ इस दर्शनीय दृश्य को देख-देखकर और इस श्रवणीय श्रव्य विषय को सुन-सुनकर ऐसा कौन भव्य मानव होगा जो रोमाञ्जित न हुआ हो और ऐसा कौन होगा जिसके मुख से सहसा गुण गाथाएं न निकली हों। श्रीनाभयजिनेन्द्रकारमकरोधर्मप्रतिष्ठां पुनर्, यः सत्याग्रहणाग्रही सहनयराचार्यभिक्षुर्महान् । तत्सिद्धान्तरतेन चाररचिते श्रीनत्थमल्लषिणा, सर्गः सप्तदशो बभूव सुतरां श्रीभिक्षवृत्ते शुभम् ॥ श्रीनत्यमल्लषिणा विरचिते श्रीभिभुमहाकाव्ये श्रीभिक्षोः सिरियारीनगरे चातुर्मासप्रवासार्थमागमनं, रोगाक्रान्तशरीरं, महाप्रयाणस्य समयः, सर्वैः सह क्षमायाचनं, संस्तारकस्य प्रतिपन्नतेत्यादि प्रतिपादकपरः सप्तदशः सर्गः।

Loading...

Page Navigation
1 ... 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308