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सप्तदशः सर्गः
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समाधि का मूल कारण न वेशभूषा है, न लोकपूजा है और न संघसम्मेलन ही है । इसलिए इन समस्त बाह्य भावनाओं को छोड़कर मैं निरंतर अपने अध्यात्म भाव में ही रमण करता रहूं ।
१७७. प्रभो ! त्वदाज्ञा बहिरुद्यमो मे प्रभो ! त्वदाज्ञासु निरुद्यमश्च ।
कदापि मा स्तान् मम जीवनेषु, काङ्क्षेत्यकुण्ठास्तु फलेग्रहिः सा ॥
प्रभो ! मेरी यह तीव्र उत्कंठा है कि मेरे इस जीवन में आपकी आज्ञा के बाहर कभी भी कोई उद्यम न हो और आपकी आज्ञा में कभी भी मेरा अनुद्यम (आलस्य) न हो । मेरी यह अभिलाषा फलवान् बने ।
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१७८. आलोचना योगवरः कृतेत्थं श्रुत्वैव केषां न समेति तोषम् । आराधनाशान्तसुधारसान्धो, योगीश्वरः स्नातपवित्रितोऽभूत् ॥
इस प्रकार मन, वचन और काया के निर्मल योगों के द्वारा की हुई आलोचना को सुनकर ऐसा कौन होगा जो प्रसन्न न हो । आराधनारूपी शान्त सुधासिन्धु में स्नान कर वे योगीश्वर महामुनि पवित्र हो गये ।
१७९. प्राणान्ततोप्येतदवार्यमस्या, व्रतं
चतुष्काशनवजितं च । कृतं च तत्तेन महात्ममाजा, कल्पा जिशीर्षेग्रमतङ्गजेन ॥ संवत्सरी पर्व के दिन जैन मुनि को चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यानपूर्वक व्रत करना अनिवार्य है। आचार्य भिक्षु अत्यंत अस्वस्थ होते हुए भी उस दिन ( भाद्र शुक्ला पंचमी को ) उपवास किया और कल्प - आगमसम्मत आचारबिधि के समरांगण के मोर्चे पर मत्त गजेन्द्र की भांति डटे रहेधर्मध्यान में स्थित हो गए ।
१८०. वैराग्यभूद्धामिकवेशनाभिजिनेन्द्र वृत्ता विककीर्तनश्च
समाधिसन्तोषसुधानुपानैः, पर्वाधिराजस्य दिनं प्रपूर्णम् ॥
वैराग्योत्पादक धार्मिक देशनाओं, जिनेन्द्र देव के चरित्रों और कीर्तनों, समाधि तथा संतोष के सुधापानों से उस महापर्व का वह पुण्य दिवस सम्पन्न हुआ ।
महोदयेन, प्रतिक्रमश्चारुविधेर्ध्यधायि । ध्यानैस्तदा सम्भवतश्च चत्वारिंशच्चतुर्विंशतिका स्तुतीनाम् ॥
उस दिन सायंकाल आपने विधिपूर्वक प्रतिक्रमण किया और संभवतः चालीस लोगस्स का ध्यान भी किया ।
१८१. सायन्तनस्तेन