Book Title: Bhikshu Mahakavyam Part 02
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 282
________________ २५६ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १४९. प्रयोजने सत्यऽपि यत् तृणाचमात्तं प्रयुक्तं समयातिरिक्तम् । स्वमानपूजार्थविगृष्नुनेव, देवाद्यदत्तं समुपाददे च ॥ प्रयोजन होने पर भी सिद्धान्त का अतिक्रमण कर यदि मैंने तृण भी उठाया हो या उसका प्रयोग किया हो तथा अपनी मान, पूजा-प्रतिष्ठा और अर्थ में गृद्ध होकर यदि देव आदि की चोरी की हो तो मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। १५०. दिव्यं च तैरिश्च्यमयश्च मात्त्यं, यन् मैथुनं घोरघनिष्ठपापि । स्वप्नेऽपि साङ्कल्पिकदृपदव्या न्यषेवि मोहान्धिलवत् कदाचित् ।। देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी घोर घनिष्ठ पाप से संश्लिष्ट करने वाले मैथुन का मोहांध की तरह यदि कदाचित् स्वप्न में भी मैंने संकल्प-पथ तथा दृष्टि-पथ के द्वारा सेवन कि या हो तो मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । १५१. शिवेन्दिराया वयसीमिवेहाऽमूछो विमुच्याज्ञतया प्रवृत्त्या। दूतीमिवाभित्य च दुर्गतीनां, मूच्छा मयाऽधारि परिग्रहे यत् ॥ मोक्षरूपी रमणी की सहेली है-अमूर्छा और दुर्गति की दूतिका है -मूर्छा । मैंने अज्ञानवश अमूर्छा को छोडकर मूर्छा को अर्थात् ममत्व को परिग्रह से संयुक्त किया हो तो मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो। १५२. देवनुमान् देवगिरिर्यथाङ्गी, संज्ञी यथा पञ्चविधेन्द्रियाणि । महावतान् पञ्च तथाष्टमात्रा, वः न सम्यक निरतिक्रमत्वात् ॥ जैसे सुरगिरि पांच प्रकार के कल्पतरुओं को तथा संज्ञी प्राणी पांच इन्द्रियों को धारण करता है ठीक वैसे ही यदि मैंने आठ प्रवचन माताओं और पांच महाव्रतों का निरतिचार पालन न किया हो तो मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो। १५३. अन्तर्गतत्त्वादपि सिक्यमात्र, निशाशनं शोलितवान् कञ्चित् । प्रमावतां मन्द इवात्र किञ्चिन्, मात्रं क्रियासु श्लयां बमार ॥ मुंह में रहे हुए सिक्थ मात्र भी आहार के अंश को यदि रात्रि में गले उतारकर रात्रि भोजन का आचरण किया हो तथा आलसी व्यक्ति के प्रमाद की भांति यदि मैंने अपनी संयमी क्रियाओं में किंचित् मात्र भी श्लथता लाई हो तो मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो ।

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