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श्रीभिक्षमहाकाव्यम् १५९. अष्टादशाऽबह्मवदेनसां तु, स्थानान्यशीलि श्लथताप्रपञ्चः ।
मिथ्या सतां तान्यखिलानि सद्यो, दुरोदराणामिव' जल्पितानि ॥
मैथुन के अठारह प्रकारों की भांति ही पाप के अठारह भेद हैं । उनका यदि मैंने कभी भी शिथिलता आदि कारणों से सेवन किया हो तो वे द्यूतकार के सारहीन वचन की तरह मिथ्या हों। १६०. आलोचनानिन्दनगर्हणः स्वमनोवचःकायकषायक्लप्तम् ।
भवप्रद्धि प्रणिहन्मि पापं, वैद्यो विषं मन्त्रवररिवाऽहम् ॥ ___ मैं अपने मानसिक, वाचिक, कायिक और कषाय संश्लिष्ट भावों से संसार बढाने वाले पाप को आलोचना, निन्दा और गर्दा के द्वारा वैसे ही . नष्ट करता हूं, जैसे एक वैद्य अपने औषध प्रयोग के द्वारा तथा एक मंत्रवादी मंत्रों के द्वारा विष को नष्ट कर देता है । १६१. अतिक्रमाचं विमतेः कदाचिल्लग्नातिचारं शुभसंयमे च ।
व्यधामनाचारमपि प्रमादात्, प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुन्यै ॥
अशुभ भावों से यदि मेरे इस शुभ संयम में कभी अतिक्रम आदि दोष लगे हों और प्रमाद से कभी अनाचार भी लगा हो तो मैं इन सबकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करता हूं। १६२. प्रोज्य क्रुधं शल्यमिवान्तरङ्गानिःशेषसत्त्वान् भमयामि सम्यक् ।
साम्यन्तु ते वै मयि मुक्तवैराः, प्रबुद्धकोपानलवुःप्रभावाः॥ ___ मैं शल्य की तरह ही क्रोध को अन्त:करण से मिटाकर सम्यक् प्रकार से समस्त प्राणियों को क्षमा प्रदान करता हूं और क्रोधानल के दुष्प्रभाव से परिचित वे भी मेरे प्रति वैर-विरोधों को भूलकर मुझे क्षमा करें।
१६३. श्रद्धानसिद्धान्तनितान्तभेदात्, प्रागद्रव्यदीक्षाप्रदमद्गुरोश्च ।
त्यागे सचर्चे कटुता गता स्यान्निन्दामि गर्हे क्षमयामि भूयः॥
श्रद्धा और सिद्धान्त का नितान्त भेद होने के कारण मैंने अपने द्रव्यदीक्षा प्रदाता गुरु को छोडा। उनके साथ चर्चाएं कीं। यदि इन प्रसंगों में कोई कटुतापूर्ण व्यवहार हुआ हो तो मैं उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और उनसे बार-बार क्षमायाचना करता हूं।
१६४. स्थल्यां वसन्तं ननु चन्द्रमाणं, तिलोकचन्द्र प्रति निर्मलत्वात् ।।
क्षमापनं मे क्षमणं च वाच्यं, पपात कार्य बहुलं च ताभ्याम् ॥ १. दुरोदरम्-जुआ (दुरोदरं कंतवञ्च-अभि० ३।१५०) ।