Book Title: Bhikshu Mahakavyam Part 02
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 279
________________ सप्तदशः सर्गः २५३ आचार्य भिक्षु के शिष्यों में मुकुटोपम श्रीसंपन्न मुनि श्री भारिमालजी मुख्यरूप से आचार्य पद को प्राप्त हुए, जैसे ग्रहों, नक्षत्रों के होते हुए भी चन्द्रमा ही राजा के पद को प्राप्त होता है । १३२. मुमुक्षुमुख्यो निजमायुरल्पं, विवेद सोन्तःकरणात् तदानीम् । आत्मात्मना पुण्यचयं प्रभूतं प्रचेतुकामो विभवीव रायम् ॥ आचार्य भिक्षु अपने आयुष्य को अल्प समझकर अन्तःकरण से अपनी आत्मा के द्वारा पुनीत पुण्य (धर्म) का संग्रह करने में वैसे ही संलग्न हो गये जैसे एक धनी व्यक्ति धन का संग्रह करने में संलग्न हो जाता है । १३३. संलेखनां शुद्धतपोविचित्रां स स्वामिनाथः प्रथयाञ्चकार । चिकीर्षया वोक इवान्तरात्मशुद्धेर्बहिः स्नानमिवाङ्गशुद्धेः ॥ उन्होंने उस समय अपनी अन्तरात्मा की शुद्धि के लिए विचित्र प्रकार की शुद्ध तपस्या से समन्वित संलेखना रूप अन्तरङ्ग स्नान वैसे ही प्रारम्भ कर दिया जैसे एक व्यक्ति अपनी शारीरिक शुद्धि के लिए बाह्य स्नान करता है । १३५. प्रणीय भिक्षुर्भवभीरुरेष, संलेखनां पूर्वगणीव गुण्याम् । आराधनां तामुपचक्रमेऽद्य, प्रशान्तसन्मानसराजहंसः ॥ उपशान्त मानसरोवर के राजहंस भवभीरू भिक्षु ने पूर्वाचार्यों की तरह ही शुद्ध संलेखना कर उसकी आराधना प्रारम्भ कर दी । वे कहने लगे - १३५. भूता भविष्यन्ति च वर्त्तमानाः, समग्र सौषम्य विलासवासाः । ते वीतरागाः परभागयागाः, सदा शरण्याः शरणीभवन्तु ॥ सभी महान् अतिशयों से अन्वित, गुणोत्कर्ष से पूजनीय, सदा शरणभूत ऐसे त्रिकालवर्ती वीतराग देव की मुझे शरण हो । १३६. अनादिकर्मेन्धनमात्मशक्त्या, प्रज्वाल्य सद्ध्यानहुताशने मे । संशुद्ध जाम्बूनदवत् प्रजातास्ते सन्तु सिद्धाः शरणं शरण्याः ॥ अनादि काल से आत्म-संश्लिष्ट कर्म रूप ईन्धन को आत्मशक्ति के द्वारा सद्ध्यान रूपी अग्नि में जलाकर जो शुद्ध स्वर्ण के समान पवित्र हो गये हैं, उन सिद्धों की मुझे शरण हो । १३७, निर्मान्ति ये भृङ्गवदात्मवृत्ति जितेन्द्रियाः कच्छपवत् सुवृत्ताः । कल्याणमग्ना इव शुभ्र लग्नास्ते सन्तु सन्तः शरणं शरण्याः ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308