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सप्तदशः सर्गः
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जैन मुनि के आहार संबंधी सेंतालीस दोष माने गए हैं। वे पापवर्द्धक तथा अन्य प्राणियों को भयभीत करने वाले हैं। मुनिपति भिक्षु ने इन सबका शत्रुसमूह की भांति निवारण कर डाला। १२१. विभूषणानीव तमोद्विषां यः, सद्वादशानां प्रतिमेन्दिराणाम् ।
पुपोष सद्वादशभेदभाजि, तपांसि कायं सुधिया शुशोष ॥
रापनाशिनी द्वादश भिक्षु प्रतिमा रूप महालक्ष्मियों के आभूषणों के समान इन बारह भेदों वाले तप का इन्होंने पोषण किया और निर्मल भावों से अपनी काया का शोषण भी किया।
१२२. ईर्याद्ययुक्सत्समितिप्रयोगा, यस्योत्तमाः शास्त्रविधानविद्धाः।
महाव्रतालम्बनयष्टिकल्पा, यद्वा प्रचण्डस्मरवज्रबाणाः ॥
शास्त्रोक्त विधि-विधान सम्मत इनके ईर्या आदि पांच समितियों के प्रयोग अति उत्तम थे। ये महाव्रतों के लिए आधारभूत यष्टी के समान थे। अथवा ये पांच महाव्रत प्रचंड कामदेव को नष्ट करने के लिए पांच वज्रदाण थे।
१२३. त्रिगुप्तयो गुप्तिवतां गुरूणामारक्षिकाश्चारुचरित्रलक्ष्म्याः ।
त्रिशक्तयः क्षोणिभृतां प्रभूणां, यथा स्खलद्राज्यरमारमण्याः ॥
जैसे भ्रष्ट होती हुई राज्य की लक्ष्मी रूप रमणी की रक्षा के लिए राजा की तीन शक्तियां होती हैं वैसे ही गुप्तियुक्त आचार्य भिक्षु की तीन गुप्तियों की साधना सच्चारित्र रूप लक्ष्मी की रक्षा की आरक्षिका के समान
थीं।
१२४. प्रन्यावली गुम्फितवान गरिष्ठामिवात्मवृत्ति विमलां विलोक्याम ।
अदीक्षयद् भूरितरांश्च शिष्यान्, शिष्यीकृताखण्डलमण्डलार्यः ।।
अपनी प्रदीप्त और पवित्र आत्मवृत्ति के अनुरूप ही आपने गहन और तात्त्विक ग्रन्थावली का निर्माण किया। इन्द्र-मंडल पर शासन करने वाले तथा उनके दारा पूजित आचार्य भिक्षु ने अनेक शिष्यों को दीक्षित किया। १२५. रत्नत्रयीमण्डितपण्डिता यच्छिष्या बभूवुजितवादिवृन्दाः ।
किमेकजीवेन गवर्ण्ययात्र', धृता धरित्या बहवो गिरीशाः॥
इनके शिष्य भी वादी-वृन्द पर विजय पाने वाले, रत्नत्रयी से मण्डित और विद्वान् थे । उनको देखकर यह वितर्कणा होती थी कि क्या देवलोक में एक बृहस्पति को देखकर ईर्ष्या करती हुई इस धरा ने इन अनेक मुनिरूप बृहस्पतियों को धारण कर लिया है ? १. देवलोकेन स्पर्द्धया।