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११५. रत्नत्रितय्याः परमप्रतिष्ठामतुच्छ गुच्छां विवधे समोदाम् । विश्वत्रयस्याधिपतित्वलक्ष्मीं, वाञ्छन्निवान्तःकरणेन सोऽत्र ॥
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
मानो लोकत्रय के आधिपत्य की लक्ष्मी को अन्तःकरण से चाहते हुए आचार्य भिक्षु ने अत्यधिक प्रसन्नता से इस रत्नत्रयी की परम प्रतिष्ठा की ।
११६. अथ व्रतीन्दोर्नवदीक्षिताह्नस्तपोमुखं तीव्रतरं वितेने । परिच्छदादश्च विकाशयामि किञ्चिन्महावीरवदत्र चारु ॥
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अब भगवान् महावीर की भांति महामुनि भिक्षु के नवदीक्षित काल से जीवन पर्यन्त होने वाली तीव्रतर तपस्याओं तथा साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका रूप चतुविध संघ परिवार का संक्षिप्त वर्णन कर रहा हूं ।
११७. प्रबोधदानं मुनिपोन यावज्जीवं जही द्योत 'मिवांशुमाली । विहारचर्यामपि नो तथोव्यां, कदाप्यटाट्यां भुवने मरुद्वत् ॥
आपने जनता को प्रतिबोध देना तो जीवन भर वैसे ही नहीं छोड़ा जैसे सूर्य अपने प्रकाश को नहीं छोड़ता । आपकी अप्रतिबद्ध विहारचर्या अनवरत पृथ्वी पर वैसे ही चलती रही जैसे इस भूतल पर वायु का संचरण होता है ।
११८. स्वसाधनं नो व्यमुचन् मुनीन्द्रो, न्यायं यथा न्यायरतो नरेन्द्रः । पञ्चातिचारान् स जहार जैत्रः, कि शक्तितः कामगुणान् जिघांसुः ॥
उन्होंने किसी भी परिस्थिति में अपनी आत्म-साधना को नहीं छोड़ा जैसे एक न्यायप्रिय नरेन्द्र अपने न्याय को नहीं छोड़ता । यह प्रश्न होता था कि क्या शक्ति के द्वारा कामगुणों की समाप्ति करने की इच्छा से ही विजयी भिक्षु ने इन पांच अतिचारों को छोड़ा था ?
११९. व्रतानि तद् द्वादशगेहिनां संविस्तारयामास जिनोदितानि । स भावनाः पोषयितुं प्रवृत्तो, याः प्रापयित्री भवसिन्धुपारम् ॥ श्रावकों के भगवद् भाषित बारह व्रतों का भी उन्होंने विस्तार किया तथा भवसिंधु का पार प्राप्त कराने वाली पवित्र भावनाओं को पुष्ट करने में भी वे सदा प्रयत्नशील रहे ।
१२०. आहारदोषा ननु सप्तचत्वारिंशन् मिताः कातरितान्यसत्त्वाः । पापोपबृंहा वशिनामधीशैनिवारिता द्वेषगणा इवेतः ॥
१. द्योतः - प्रकाश ।