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सप्तदशः सर्गः
२४९ , १०९. अतो हि किम्पाकफलोपमा तां, ध्यायामि विज्ञाय न चेतसाऽपि ।
तादृक् समारोहनिरीहवृत्तिः, सदाविनाश्यात्मसुखाभिकामी ॥
'अतः दिव्य संपदा को किम्पाक फल की तरह समझ कर मैं इनकी मन से भी कल्पना नहीं करता और न मैं ऐसे सुखों का इच्छुक भी हूं। मैं तो सदा आत्मा के अविनाशी सुखों का ही इच्छुक हूं।'
“११०. साधीयसों तस्य सुनिःस्पृहस्य, वैराग्यसारां सुविचारधाराम् ।
निशम्य सर्वेऽपि शमामृताब्धेस्तरतरङ्गाश्रितमानसास्ते ॥
उन निस्पृह भिक्षु स्वामी की वैराग्य रस से ओतप्रोत सार्थक विचारधारा को सुनकर वे सारे के सारे श्रोतागण उपशम रस के सुधा सिन्धु की उछलती हुई तरङ्गों के समान तरङ्गित मानस वाले हो गये। १११. क्रियामसह्यां विविधां विधातुर्विवद्धते ततपसोऽतितेजः ।
दोषालिहन्तुर्वतिनः समूला, दिवोत्तराशा वसतो गभस्ते ॥
नाना प्रकार की उग्र क्रिया करते हुए भिक्षु के उस तप से उनकी तेजस्विता निखरने लगी और दोष समूह का समूल नाश करने से उनका तेज वैसे ही बढ़ने लगा जैसे उत्तरायण में गए हुए सूर्य का तेज बढ़ता है। ११२. अभिग्रहान् साग्रहतो विशेषान्, गृह्णन् गरिष्ठान गुणगौरवान् ि ।
देदीप्यते गोतमवद् गणेन्द्रो, दीपाङ्गजोऽङ्गिप्रतिबोधदाता ।।
भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देने वाले आचार्य भिक्षु उस समय शिष्यों का आग्रह होते हुए भी, गौरव बढ़ाने वाले बड़े-बड़े विशेष अभिग्रहों को धारण करते हुए गौतम स्वामी की तरह देदीप्यमान होने लगे। ११३. जिनाभिधानं स्वमनोरविन्दे, मरालवत् संरमयन् रमाभिः ।
समाधिमाधाय जितेन्द्रियः सद्योगीन्द्रवद् ध्यानमशिश्रयत् सः ।
उन्होंने जिनेश्वरदेव के नाम को अपने मन कमल पर राजहंस की भांति रमा लिया। जितेन्द्रिय आचार्य भिक्षु ने अपने आध्यात्मिक चभव के साथ समाधि स्वीकार कर सद्योगी की भांति ध्यानलीन हो गए। ११४. नियोज्य योगान् विमलान् विरक्तः, स्वाध्यायपाठंस वितन्तनीति।
मन्ये भृताम्भोधरगर्जनं किं, विनोदयन् भव्य शिखण्डिवृन्दम् ॥
वे विरक्त महामुनि अपने विमल योगों को नियोजित कर स्वाध्याय करने लगे। उनके स्वाध्याय घोष की ध्वनि पानी से भरे बादलों के गरिव जैसी गंभीर थी। उस ध्वनि से वे भव्य मनुष्यरूपी मयूरों को आनन्दित करने लगे।