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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
१०३. क्व मे पुनर्भावि सुदर्शनं ते, शिक्षामृतं श्रोत्रपुटे पुनः क्व । पुनः पुनः कोऽत्र पथप्रदर्शी, महान् विमर्शो हृदयाम्बुजेऽस्मिन् ।।
'भंते ! आपके दर्शन पुन: कहां होंगे ? आपकी अमृतमय शिक्षा कहां सुन पायेंगे ? बार-बार हमारा यहां पथदर्शक कौन होगा ? प्रभो ! हमारे इस हृदय में यह महान् विमर्श हो रहा है ।
१०४. स्वाम्याह यूयं विमलाशयेन, निर्दोष साधुत्वसुपालनेन । कृत्वाऽतिसार्थं नृभवं परत्र, सुधाशनाः सम्भविनोऽनुमानात् ॥
तब स्वामीजी ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- तुम पवित्र मन से 'निर्दोष संयम का पालन कर, नर जन्म को सफल बनाकर देवलोक में दिव्य देव बनोगे, ऐसा अनुमान से प्रतीत होता है ।
१०५. महाविदेहेषु ततो विलोक्या, मत्तोपि सन्तोऽतिमहानुभावाः । साक्षात्तपत्यागविरागभागाः, शान्ता जिताक्षा जितमारमोहाः ॥
पश्चात् तुम महाविदेह क्षेत्र में मेरे से भी महान् प्रतापी, तप, त्याग और वैराग्य की साक्षात् मूर्ति, शान्त, जितेन्द्रिय, काम और मोह पर विजय पाने वाले संतों के दर्शन करोगे ।
१०६. आख्यत्तदा सत्ययुगीमुमुक्षुस्तं स्वामिनं सत्य निबद्धचेताः । भवान् समारोहगमीति दृश्यः, सन्दिह्यते नैव मनाग् मयाद्य ॥
सतयुगी मुनि खेतसीजी ने तब स्वामीजी से निवेदन किया'प्रभो! आप सत्य के अनन्यतम पुजारी हैं । अत: आप बहुत गहरे झुण्ड ( समारोह) में जायेंगे ऐसा मुझे प्रतीत होता है, इसमें मुझे किञ्चित् भी सन्देह नहीं है ।'
१०७. स्वाम्याह साधो ! ऽभिलषामि नैवममुं समारोहमनश्वरान्यम् । स्वर्गादिकानां सुखसम्पदा लिरनात्मिका दुःखविपत्प्रणाली ||
तब स्वामीजी ने कहा - ' वत्स ! मैं इस नश्वर समारोह का किञ्चित् भी अभिलाषी नहीं हूं । ये स्वर्ग आदि के भौतिक सुख- सम्पद् तो वास्तव में अनात्मिक हैं । ये दुःख और विपदा के स्रोत हैं ।'
१०८. अनन्तकृत्वो मयका प्रमुक्ता,
देवालयानन्दितन न्दिरेषा । तथापि तृप्तिर्न हि मे प्रजाता, तृष्णासु तृष्णा द्विगुणा प्रवृद्धा ॥
मैंने अनन्त बार देवों के इन दिव्य सुखों का उपभोग किया है फिर भी मुझे आत्मतोष नहीं हुआ । परन्तु तृष्णा दुगुनी बढ़ गई ।