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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ___ मैंने जो प्ररूपणा की है, वह न्याय से अलंकृत, तत्सम्बन्धी सूत्रसाक्षियों से सन्नद्ध-बद्ध तथा कदाग्रह और क्लेश से विप्रमुक्त है । उसका मैंने हा-पर हित के लिए ही निर्माण किया है।
९२. सुदीक्षया शाम्भवशिक्षयाभिः, सुदीक्षिता भव्यजना ह्यनेके।
साध्व्योऽपि येऽणुव्रतिनो व्रतोघः, सम्यक्त्वदानः प्रतिबोधिताश्च ॥
___ मैंने भागवती आज्ञाओं से अनेक भव्य नर-नारियों को विधिवत सुदीक्षा से दीक्षित कर गण में साधु-साध्वी बनाये हैं। अनेक व्यक्तियों को श्रावक व्रत दिलाकर अणुव्रती श्रावक बनाये हैं और अनेक स्त्री-पुरुषों को सम्यक्त्व दिलाकर प्रतिबुद्ध किया है ।
९३. मार्गानुसत्सद्गुणिनो ह्यनेके, जिनेन्द्रमार्गाय हृदानुकूलाः।
केऽप्यास्तिका: सौलमबोधिनोपि, कृताः सतां सङ्गगुणानुरोधाः॥ ___ मैंने अनेक व्यक्तियों को मार्गानुसारी, सद्गुणी तथा जिनेश्वरदेव के पथानुकूल बनाया है । कुछ व्यक्ति आस्तिक और सुलभबोधि बने हैं तथा कुछेक साधुओं की संगति के अभिलाषी बने हैं।
९४. जनप्रबोधाय जिनागमानां, न्यायप्रमाणप्रतिभासमानाः । प्रन्था गुणगुम्फितगौरगात्राः, सन्दर्भिता देशगिरां घनिष्ठाः॥
मैंने जनता को प्रतिबुद्ध करने के लिए जैनागमों के न्याय व प्रमाणों से प्रदीप्त, गुणों से युक्त, पवित्र भाव वाले अनेक ग्रन्थों का राजस्थानी भाषा में निर्माण किया है।
९५. नैयून्यमस्माकमुदात्तचित्ते, नास्ति ह्मणीयस्तममात्रमा । युष्मत्कृता भक्तिरनन्यमावा, स्मार्या सदा संयमसाधनारे ॥
अब मेरे उदात्त मन में न तो किसी प्रकार की कमी अखर रही है और वास्तव में न अणुमात्र भी कमी रही है। तुम सभी ने संयमसाधना के योग्य जो मेरी अनन्यभाव से सेवा की है, वह सदा स्मरणीय है।
९६. कृतानुयोगस्य समुत्तरं तद्, दत्त्वा पुनर्यच्छति साधुशिक्षाम् । भूयो मदीयं कथनं त्विदं वो, ध्यानेन धैर्याच्छणुताप्रमावात् ॥
शिष्यों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भिक्षु स्वामी ने पुनः शिष्यों को भिक्षा देते हुए कहा-'मेरा यही कथन है कि तुम मेरी इस शिक्षा का ध्यान से, धैर्यपूर्वक और अप्रमत्तता से श्रवण करो।