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सप्तदशः सर्गः
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२६. ततोन्तिमा श्रीमुनिभिक्षु शिक्षा, चैकान्ततो नैव विचारणीया। विचारसारा गहनाशया सा, चरित्रहीनस्य न पोषिकास्ति ।
अतः आचार्य भिक्षु की यह अंतिम शिक्षा सारपूर्ण विचारों सेतथा गहन हार्द वाली है । इसे एकान्तदृष्टि से न देखे । यह चरित्रहीन व्यक्ति का पोषण करने वाली नहीं है ।
८७. शङ्कासमाधानमिदं विधानात्, प्रसूर्य तत्प्रस्तुतमातनोमि । तो मार्मिकां सारसुधासगर्मा, निपीय शिक्षा सुजनाः प्रसन्नाः ॥
इन भिक्षु शिक्षाओं पर की कई आपत्तियों का समाधान कर अब मैं पुनः प्रस्तुत प्रकरण को ही प्रारम्भ करता हूं। उनकी उस अन्तिम अवस्थाकालीन सार सुधासिक्त मार्मिक शिक्षा का पान कर वहां उपस्थित संत लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए।
८८. कलं जगुर्जे कधन्यवादपुरःसरं साधुजना गुणज्ञाः । पप्रच्छरेते च विनम्रभावा, व्यथास्ति कि नो भवतां शरीरे ॥
गुणज्ञ संतों ने 'आपकी जय-विजय हो', 'आप धन्यवाद के पात्र हैंआदि मधुर शब्दों में आपका अभिवादन करते हुए नम्रतापूर्वक आपसे पूछा-'भंते ! क्या आपके शरीर में व्यथा है, पीड़ा है ?'
५१. अत्तिन मे किन्तु तनुश्लथत्वाभासस्ततः स्यानिकटे ममायुः। प्रत्याचचक्षे कृतसौकृतस्य, प्राणप्रयाणे प्रमदोऽमदो मे ।।
उन्होंने उत्तर देते हुए कहा-'मुझे किसी भी प्रकार की पीड़ानुभूति नहीं हो रही है, पर शारीरिक शैथिल्य को देखते हुए मुझे मेरा आयुष्य निकट लगता है। किन्तु धर्माराधना कर आराधक होने के कारण मुझे मेरे प्राणों के जाने पर निर्विकार रूप से प्रसन्नता है।
९०. प्रकामनिष्कामधिया जिनेन्द्रधर्मकनीत्या विशदावदाता। प्रभावना जैनमतस्य सत्या, कृता जगत्यां जनतारणाय ।।
मैंने केवल निष्काम बुद्धि से, जैनधर्म की एकमात्र रीति-नीति से, जैन शासन की यथार्थ, विमल तथा शुभ्र प्रभावना इस भूतल पर जनता का उद्धार करने के लिए की है।
९१. प्ररूपणा न्यायनिखनद्धा, सन्नवसम्बदसुसूत्रसाक्षी।
कवाग्रहोद्विग्रहमारमुक्ता, विनिर्मितात्मापरमोक्षणाय ॥