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सप्तदशः सर्गः
७५. यत् किञ्चिदुक्तस्य न पृष्ठगेन, भाव्यं प्रवाहेन न चोह्यमेव । - परीक्षणीयं च हिताहितार्थ, नेयं च कार्य स्वविवेकताभिः ॥
___उन्होंने कहा, जो कुछ किसी ने कह दिया उसके पीछे मत चलो, प्रवाह में मत बहो। अपने विवेक को काम में लो और हित-अहित की परीक्षा करो।
७६. उपेक्षिताः स्युः स्वगुरावमी चेन्, मूर्त्यर्चके स्थानकवासिनश्चेत् । मूर्त्यर्चका दुर्यतिनां समूहे, न स्यात् ततो जनमते विमेवः ॥
यदि कोई यह सोचे कि आचार्य भिक्षु अपने गुरु के प्रति, स्थानकवासी संप्रदाय के प्रति, मूर्तिपूजकों के प्रति, मूर्तिपूजक यतियों के प्रति उपेक्षा रख लेते तो जिनशासन में इतने भेद-प्रभेद (टुकड़े) नहीं होते।
७७. एककबोलस्य मिथो विवादाद, वैभिन्न्यमुन बहु वैमनस्यम् । एककमोक्षे च मतैकता स्यात्, परन्तु दोषा ह्यनुपेक्षणीयाः॥
एक-एक बोल (प्रश्न) का ही परस्पर विवाद दृष्टिगोचर होता है । यह विभिन्नता उग्र होकर वैमनस्य को बढ़ाने में सहायक बनी है। यदि एक-एक बोल छोड़ दिया जाए तो मतैक्य हो सकता है। किन्तु नीतिकार कहते हैं-दोषों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
७८. आचारहीनकतयाऽपि किं स्यात्, प्राणप्रहाणश्च किमस्थिवारैः। समन्वयः कः श्लथतानुगैश्च, कः संस्तवः केवलवेषभाग्भिः॥
आचार को छोड़कर की जाने वाली एकता से भी क्या प्रयोजन ? वह तो प्राणशून्य हड्डियों के ढेर के समान है। शिथिलाचारियों के साथ कैसा समन्वय ? केवल वेषधारियों के साथ कैसा परिचय ? .
७९. संकीर्णता साधुपथे हितायाऽसङ्कीर्णता साधुपथेऽहिताय । __ मुक्तौ न सौख्यं लवलेशमात्रममुक्तितायां परिपूर्णसौख्यम् ।
साधुमार्ग में जितना नियन्त्रण (संकोच) हो उतना ही हितकारी है और जितना अनियन्त्रण हो उतना ही अहितकारी है। मुक्तता में सुख का लव-लेश भी नहीं होता जबकि संवरण में परिपूर्ण सुखानुभूति है।
५०. स्ववद्यथार्थत्वसुरक्षणार्थ, कृता न दुष्टा दलबन्धिताऽपि ।
विना समूहैर्न निरङ्कशाना, प्रतिक्रिया स्यात् प्रभुतोऽपि शक्त्या॥