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श्रीभिभुमहाकाव्यम् ___ अपने स्वयं की रक्षा की भांति ही यथार्थ सत्य की सुरक्षा के लिए. उन्होंने कभी तुच्छ दलबन्दी नहीं की। यह सच है, निरंकुश व्यक्तियों का दमन प्रचुर शक्ति होने पर भी समूह के बिना नहीं हो सकता। ८१. अल्पीयसां ये प्रभुताप्रमत्ताः, सत्ताधिरूढाश्च यथेच्छमुच्चैः । कुचक्रतो निर्दलनं प्रकुर्यस्ततो हि युक्ता दलबन्धिताऽपि ॥
जो अपनी प्रभुता से प्रमत्त हैं, सत्ता पर आरूढ़ हैं और कुछ ऊंचाइयों को प्राप्त हैं, वे व्यक्ति अल्पसंख्यकों को अपने कुचक्र से दबा डालते हैं, उनको ध्वंस कर डालते हैं, उस स्थिति में दलबन्दी भी उचित होती है।
८२. जिनेन्द्रमार्गे परिलोकनीया, गुणानुपूजा प्रकृता कृतान्तः । गुणविहीनान् परिपूजयेयुस्तेऽन्येहि मार्गा भवनान्तराले ॥
जैन शासन में गुणों की पूजा का ही आगमों में विधान है, गुणशून्यः पूजा का नहीं । संसार में जहां गुणशून्यों की पूजा होती है, वे मार्ग दूसरे हैं। जैन शासन के नहीं।
२३. श्रीमारिमालार्थयदुक्तसूक्तिपुञ्जोऽपि तद्योग्यगुणानुसारी। __ आचारहीनो यदि कोऽपि कीदृक्, त्याज्यो बुधेनात्मवता विवेकः॥
भिक्षु स्वामी ने भारीमालजी स्वामी के लिए जिन-जिन सूक्तियों का प्रयोग किया, वे भारीमालजी यथार्थ में वैसे ही थे। यदि कोई आचारहीन हो, तो वह कैसा भी क्यों न हो, ज्ञान एवं विवेक सम्पन्न आत्मार्थी के लिए त्याज्य ही था। . ८४. न्यायेन युक्तं समताप्रयुक्तमेकाधिपत्यं रमणीयमेव ।
आत्मीयता क्वास्ति तदन्तरेण, स्वत्वं बिना क्व व्ययनं व्यवस्था ॥
उन्होंने न्याय और समता युक्त एकाधिपत्य को ही श्रेयस्कर माना, क्योंकि उसके बिना अपनत्व नहीं होता और अपनत्व के बिना कहां होती है व्यथा और व्यवस्था ? ५५. अन्याययुक्तं विषमं विवृत्तं, प्रभुत्वमप्यत्र भवेच्च कीदक। समूलतः कण्टकवत् समस्तैः, शैलर्षिशिष्यरिव हेयमेव ॥
अन्याययुक्त, विषम तथा चारित्रहीन प्रभुत्व कैसा भी क्यों न हो, आचार्य भिक्षु उसे नहीं चाहते थे। जैसे शैलर्षि के सभी शिष्यों ने शैलर्षि का कांटों की भांति समूल उन्मूलन कर दिया था, वैसे ही वैसा प्रभुत्व हेय होता है।