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सप्तदशः सर्गः
२४१ जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण अग्नि की आराधना करता है वैसे ही शिष्य को सद्गुरु की आराधना करनी चाहिए। तथा जैसे राजर्षि शैलक को उनके शिष्यों ने शिथिलाचारी मानकर छोड़ दिया था, वैसे ही शिष्य भी अपमार्गमागी अपने गुरु को भी छोड़ दे। ६४. स्वतन्त्रता सर्वकृते यथार्थे, नियन्त्रणं तस्य कदाग्रहस्य । न चेनिजाचार्यसमैः कथं स, तथा प्रवर्तत चरित्रनाथः ॥
यथार्थ बात को प्रगट करने का सबको अधिकार था, पर नियन्त्रण था तो कदाग्रह की निवृत्ति के लिए। यदि ऐसा नहीं होता तो वे मुनि भिक्षु स्वयं अपने आचार्य के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते ।
६५. गुरोः प्रशस्यो विनयी विनेयो, गुरुर्गुरूणां गुणभूषितः स्यात् । गुणविहीने स्वगुरावपीहान्तेवासिनां स्याद्विनयोऽपि मोहः॥
जो गुरु गुरु के गुणों से भूषित हैं, उनके प्रति विनयी शिष्य का किया जाने वाला विनय प्रशस्त होता है और जो गुणविहीन गुरु, फिर चाहे वे अपने ही गुरु क्यों न हों, के प्रति शिष्य द्वारा किया जाने वाला विनय केवल मोह है, अप्रशस्त है।
६६. गुरोरनाचीर्णगतस्य कार्याऽकार्यानभिज्ञस्य मृषावलिप्तेः । सामाज्जिनानाविपरीतगस्य, त्यागो विधेयोऽवधिलोपकस्य ।।
अनाचारों के उपासक, कृत्याकृत्य के अनभिज्ञ, मिथ्याभिमानी, प्रत्यक्षतः जिनाज्ञा से विरुद्ध चलने वाले तथा मर्यादा के उत्थापक मुरु का त्याग कर देना चाहिए। ६७. गुरुः स्वयं स्वस्य गुरोरनुज्ञां, समुद्वहेद् यः सनयः सदैव । ज्ञेयः स एवोत्तमसद्गुरुर्वा, तस्यैव शिष्टिः परिपालनीया ।
जो अपने गुरु की सिद्धान्त-सम्मत आज्ञा पालने वाला होता है वही वास्तव में उत्तम गुरु है और ऐसे सद्गुरु की आज्ञा ही वास्तव में आराधनीय होती है। ६८. यत् केवलिभ्योऽर्पणसंकयापि, मियावितण्डापरिहारहेतोः। नियोजिता वा गहनार्थवादेऽगम्ये च कस्मिन्नपि सामयस्य ॥
भिक्षु की विचारधारा में मिथ्या वितण्डावाद का परिहार करने के लिए, किसी सैद्धान्तिक गहन अर्थ के लिए अथवा बुद्धिगम्य न होने वाले विषय के लिए ही 'केवलिगम्यं इदं तत्त्वं' की बात थी।