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१४५. काक्वा कोप्यभिभाषते मुनिपत संयोजना भूरिशः, सृज्यन्ते भवता तदाह श्रृणुतात् कस्याप्युभौ नन्दनौ । एको मेलकरोऽपरोऽपरकरः को ह, युत्तमस्त्वं वद, क्षिप्रं म्लानमुखो जगाम विमुखः स्वामी महाबुद्धिमान् ॥
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
किसी ने आचार्य भिक्षु से व्यंग्य की भाषा में कहा - आचार्य श्री ! आप जोड़ें ( रचनाएं) बहुत करते हैं । आचार्य भिक्षु बोले- सुनो । एक सेठ के दो पुत्र थे । एक जोड़ता है और दूसरा गवाता है। तुम बताओ, दोनों में उत्तम कौन है ?' वह उत्तर न देकर म्लान मुख होकर चला गया । ऐसे थे स्वामीजी बुद्धिमान् ।'
१४६. भूयो भूय इहात्तसाधु नियमान् वेदं प्रवेदं स्वयं,
दोषाक्तान् विदधाति योऽनवरतं नो तस्य ते स्थावराः । अन्धा भूरि पिनष्टि सत्वरभितः श्वानो लिहन्ति द्रुतं, पृष्ठे तिष्ठति किं तथाऽत्र विषये लाभाद्विनाशोधिकः ॥
जो साधु अपने स्वीकृत नियमों को जानबूझकर दूषित करते हैं, उनके वे नियम टिक नहीं सकते अर्थात् टूट जाते हैं। स्वामीजी ने एक सुन्दर दृष्टान्त दिया— कोई अन्धी स्त्री चक्की में सुपुष्कल धान्य पीस रही थी । एक ओर पेषण कार्य चालू था, तो दूसरी ओर कुत्ते उसके पीसे हुए आटे को चट करते जा रहे थे । लम्बे समय तक यह क्रम चालू रहा । शेष में जब उस अंधी स्त्री ने पीसे हुए आटे को बटोरना प्रारम्भ किया तो उसके हाथ कुछ नहीं लगा । वैसे ही स्वीकृत नियमों को दूषित करते रहने पर पीछे क्या रहता है ? ऐसे प्रसंग में लाभ से अधिक विनाश ही होता है ।
१४७. संवृत्ताद् विवराद् विलम्बनमृते गर्ता गरिष्ठा भवेदङ्करोद्गमनाच्च पल्लवयते शाखी प्रशाखी महान् । किञ्चित् संस्खलनात् स्थिरत्वभवनं शङ्कास्पदं दुष्करं, न्यायनष्टनृणां भवेच्छतमुखोऽधोधः प्रपातोऽनिशम् ॥
छोटा-सा छिद्र होने पर यदि उसका प्रतिकार नहीं होता है तो वह छिद्र बड़े गढ़े का रूप धारण कर लेता है। अगर अंकुर को उत्पन्न होते ही उखाड़ा नहीं जाता है तो वह विशाल शाखी प्रशाखी होकर पल्लवित होने लगता है । थोड़ा सा स्खलित होने पर यदि नियंत्रण नहीं हो
१. भिदृ० २४३ ।