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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
'जो वीतराग और गुरु की आज्ञा को लोपने वाला हो, वह इस जिनशासन में वन्दनीय नहीं हो सकता, चाहे वह गुरु हो या गुरु का भी गुरु । यदि वह अपने गुरु की भावना का उल्लंघन करने वाला तथा स्वच्छन्दाचारी है तो वह भी पूजनीय नहीं हो सकता ।'
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४८. पाषण्डिपार्श्व स्वकुशीलकाद्यैः, सङ्गो महानर्थ करो निरर्थः । उपासकाङ्गप्रमुखे निषिद्ध, आनन्दवर्द्धयतर समस्तैः ॥
'पाखण्डी, आचार शिथिल एवं पार्श्वस्थ व्यक्तियों की संगति व्यर्थ तथा महान् अनर्थ करने वाली होती है । इसलिए उपासक दसा आदि सूत्र में उसका निषेध है और आनन्द श्रावक की भांति ही वह सबके लिए त्याज्य है ।'
४९. तत्सङ्गता लाघवमार्हतस्य, मतस्य हंसस्य यद् वा परैः साम्यमथः परेषां स्याद् वा महत्त्वं
वकोटकाद् वा । च ततोऽतिवयः ॥
'उनका संसर्ग आर्हत् मत के लिए लघुता का परिचायक होता है, जैसे बगुलों की संगति हंस के लिए । अथवा दोनों मतों की समानता या इतर मतावलम्बियों की विशेषता लगती है । अतः ऐसा संसर्ग सबके लिए वर्जनीय है ।'
५०.
• देवाद् दृढः कोऽपि ततः कदाचित्, तथापि सोऽन्यार्थमनर्थहेतुः । अभावुकः कोऽपि परं तदन्ये, ह्यनन्तशोऽनादिपरम्परातः ॥
'ऐसे सम्पर्कों से दृढ़ता रहनी अत्यन्त दुष्कर है, यदि भाग्यवश कोई दृढ़ रह भी जाए, फिर भी वह दूसरों के लिए तो अनर्थकारी ही होता है । क्योंकि भावुकता में न बहनेवाला तो कोई एक होता है, पर भावुकता के प्रवाह में बहने वाले तो अनादि परम्परा से अनन्त मिलते हैं ।'
५१. धर्मानुरागोऽथ परस्परं च रक्ष्यः प्रतीक्ष्यः श्रमणैः समस्तः । अक्रोधाद्या वरपञ्चमाङ्ग, सतां प्रशस्ता गदिता जिनेन्द्रः ॥
'भव्य शिष्यो ! तुम सब श्रमण परस्पर में धर्मानुराग रखना । देखो, जिनेश्वरदेव ने पांचवें अंग आगम भगवती में साधुओं के अक्रोधता (क्षमा) आदि गुणों को प्रशस्त बतलाया है ।'
५२. यावृग् न तादृग् परिमुण्डनीयो, दशं च दर्श बहु दीक्षणीयः । दुष्टातिदुष्टा ननु शिष्यलिप्सा, ममत्वबन्धोऽत्र परिग्रहः स्यात् ॥