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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ३३. परिणामसुखं स्वल्पं, वक्त्रे कट्वपि तद्वचः । अभूद् भवव्यथार्तेषु, प्रामु भैषजवत्तदा ॥
स्वामीजी के वचन मुंह पर थोड़े कटु अवश्य लगते, किन्तु उनकी परिणति सुखद होने के कारण जन्म-मरण की व्यथा से दुःखी मनुष्यों के लिए वे वैसे ही ग्राह्य होते थे जैसे रोगी के लिए कटु औषधी ग्राह्य होती है।
३४. तवालापेन मिथ्यात्वमलगद गलितुं महत् । दक्षिणानिलयोगेन, किं न शीर्येत दुर्घनः ॥
तब उनके आलापों से महान् मिथ्यात्व गलने लगा । क्या दक्षिणी वायु के चलने पर घनघोर घटा जीर्ण-शीर्ण नहीं हो जाती ? ३५. महाक्रमणमस्याभूदारम्भाडम्बरं प्रति ।
जर्जराः कम्पिताः क्लान्तास्तत्पाषण्डाभिपोषकाः॥ ' स्वामीजी ने धर्म के नाम पर होने वाले आरम्भ और आडम्बर के प्रति प्रबल आक्रमण किया, जिससे पाषण्डी एवं उनके पोषक जर्जरित, कम्पित और क्लांत हो गए।
३६ शुद्धश्रामण्यसच्छद्धा, जीवनं प्रति जीवनी। मुटिता मानवीदृष्टिस्तेन दीपेन वा तदा ॥
दीपतुल्य आचार्य भिक्षु के प्रयत्नों से मानवीय दृष्टि शुद्ध श्रामण्य और शुद्ध श्रावकत्व के जीवन के प्रति मुड़ी।
३७. उदस्थात्तन्महाक्रान्तिः, श्लथाचारविशोधिनी। स्वामिवेगो न सोत, कदयः प्रतिगामिभिः ॥
शिथिलाचार के विशोधन के लिए स्वामीजी की महान् क्रांति प्रबल वेग से उठी। उस क्रांति के वेग को कायर प्रतिगामी सहन नहीं कर सके।
३८. स्वसन्मुखे युगं कालं, मोटयामास शौर्यतः । कालायुगानुगो नाऽभूत् सत्यादात्ममहाबली ॥
उस आत्मबली ने सत्यशौर्य से उस युग (काल) को अपनी ओर मोड़ा पर वे स्वयं काल एवं युग की ओर नहीं मुड़े। ३९. धर्मध्वंसे क्रियाध्वंसे, रीतिध्वंसे तथागमे ।
साचित्येषु ध्वंसेषु, मौनं मूर्खस्य भूषणम् ॥