________________
षोडशः सर्गः
२१५
१४९. रूप्यकाणि गृहस्थेभ्यो, दापं दापं कुटुम्बिनाम् ।
शिष्यकारा न सन्तस्ते, भवन्तोऽपि न साधवः ।।
जो गृहस्थों से कुटम्बियों को रुपया दिला-दिलाकर शिष्य करने वाले हैं, वे साधु कैसे हो सकते हैं ? ऐसे शिप्य बनने वाले भी साधु नहीं हैं।
१५०. यत्र यत्रोदभवेद् हिसोदीर्योदीर्यमनागपि ।
तत्र तत्र न धर्मः स्याद्, भावनापि न शोभना ।।
जहां-जहां हिंसा की उदीरणा की जाती है, वहां वहां तनिक भी धर्म नहीं होता और भावना भी अच्छी नहीं होती। १५१. महारम्भाडम्बराद्याः, समारोहादिभूरिशः ।
तत्र कीदग् दयाधर्मस्तत्त्वदृष्ट्या विचार्यताम् ।
जहां महारम्भ और आडम्बर पूर्वक समारोह होते रहते हैं वहां कौन से दया धर्म की निष्पत्ति होती है, यह सोचना चाहिए। १५२. सप्रभावा बहिर्दष्ट्या, मनोमनोरमा अपि ।
कुतूकवत् क्षणान्तास्ते, सारकार्यापसारकाः ॥
ऐसे समारोह कुतूहल की भांति बाह्य दृष्टि से मनोरम और प्रभावना करने वाले हो सकते हैं, परन्तु तत्त्वतः वे यथार्थ से दूर करने वाले हैं। १५३. रात्रौ विस्मारकाः प्रातर्लभन्ते निगमं परम् । .
मध्याह्न ये पथभ्रष्टास्तेषां काशा कथं सुखम् ॥
रात्रि में भूले भटके मनुष्य प्रभात में मार्ग पाने की आशा रखते हैं परन्तु मध्याह्न में मार्ग भूलने वाले मनुष्य को क्या आशा ? कैसा
सुख ?
१५४. गुणः शून्यं प्रमोबिम्बं, यदि स्यात्कार्यसाधकम् ।
रूप्यकप्रतिकृत्या तत्, संसारो धनिको न किम् ॥
गुणशून्य प्रभु का बिम्ब यदि कार्यसिद्धि में समर्थ होगा तो फिर नकली रुपयों से संसार भी धनी क्यों नहीं हो सकेगा ?
१५५. हिंसातोऽपि भवेद् धर्मस्तदाऽधर्मः कुतो भवेत् ।
वधोऽवधो भवेद् भावाद्, विषं कि न सुधा ततः॥
यदि हिंसा से ही धर्म होगा तो फिर अधर्म किससे होगा ? यदि भावमात्र से ही हिंसा अहिंसा बन जाए तो भावमात्र से जहर भी अमृत क्यों नहीं बनेगा?