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अखिन्नचेता भिक्षु जड कर्मों के साथ संग्राम करने में बड़े वीर थे । उन्होंने उस रोगजनित व्यथा की परवाह नहीं की। क्या मदोन्मत्त, सप्रतिज्ञ और श्रेष्ठ गन्धहस्ती दूसरों की शक्ति की परवाह करता है ?
सप्तदशः सर्गः
२१. आजन्म जैन विभावना मिनिबद्धनै पुण्य सुपुण्य पुण्यः ।
भयं न मृत्योस्तनुते ततार्थी, मृत्युञ्जयो वाऽन्यतरोवतारी ॥
जीवन पर्यन्त जिनशासन की यथार्थ प्रभावना करते रहने के कारण - बंधे हुए उत्तम पुण्य से पुण्यवान् तथा मोक्षार्थी स्वामीजी मृत्यु के भय से भयभीत नहीं हुए । प्रतीत होता था कि मानों वे मृत्यु पर विजय पाने वाले कोई अलौकिक ही अवतारी हैं ।
२२. संवत्सरी पर्युषणाख्यया यत्, पर्वाधिराजे वरपर्वणीह । शरद्धनोद्गर्जन घोष रम्या, निर्देशना तेन मुदा वितेरे ॥
२३. वयस्त्रिकं जन्मजरापमृत्युत्रिकं च तापत्रिकमङ्गभाजाम् । हन्तुं त्रिसन्ध्यं ददते त्रिसन्ध्योदुपासनावद् वृषवेशनात्रिः ।। ( युग्मम् )
पर्युषण पर्व के अन्तर्गत 'संवत्सरी' नामक महापर्वाधिराज है । संवत्सरी के दिन आचार्य भिक्षु ने शरद ऋतु के घन-गर्जन की भांति घोषयुक्त रमणीय वाणी से प्रसन्नतापूर्वक तीन बार धर्मदेशना दी ।
तीन अवस्थाओं - बचपन, यौवन और बुढ़ापा, तीन दुःखों - जन्मदु:ख, जरादुःख और मृत्युदुःख तथा तीन प्रकार के तापों आधि, व्याधि और उपाधि - को मिटाने के लिए त्रिसन्ध्य - उपासक तीन संध्याओं में उपासना करता है । मानो स्वामीजी ने भी प्राणियों की इन सब स्थितियों को . मिटाने के लिए ही ये तीन धर्मदेशनाएं दीं ।
२४. कल्प्योपचाराश्चरितार्थिनो नाऽकल्प्योपचाराश्चरिता न तेन । प्राणान्ततोऽप्युत्तम चातक: कि, निपीयते पङ्किलपल्वलाम्भः ॥
स्वामीजी के शरीर में व्याधि का प्रकोप बढता ही गया, क्योंकि कल्पनीय उपचारों से तो व्याधि घटी नहीं और अकल्पनीय उपचारों को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। क्या प्राणान्त की स्थिति में भी उत्तम चातक पंकिल तलाई का पानी पीने की इच्छा करता है ?
२५. तिथि चतुर्थी मवलम्ब्य शुक्लां, जानाति स स्वं शिथिलं शरीरम् । तदीयचन्द्रादिवमर्त्यलोकः, श्रितप्रमाणः स्त्रकपुण्यपुञ्जम् ॥
१. जैन + ऋत् = जैन २. ततार्थी -- मोक्षार्थी ।
- जैन धर्म की यथार्थ ...।