Book Title: Bhikshu Mahakavyam Part 02
Author(s): Nathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 261
________________ सप्तदशः सर्गः २३५ 'मैंने इसको (भारीमाल को ) योग्य समझकर ही निष्पक्षदृष्टि से इस पद पर प्रतिष्ठित किया है। क्या एक विचक्षण मणिकार अच्छे मणि को मध्य में, नायक के रूप में - प्रधान रूप में स्थापित नहीं करता ?' ३२. गुरोर्नियोगाः परिपालनीयाः, प्राणा इव प्राणसमर्पणेन । प्राणच्युतिः स्याद्यदि वा तदास्तु, परं तदाज्ञाविलयोस्तु मा मा ॥ 'हे शिष्यो ! गुरु के आदेशों को प्राणार्पण करके भी प्राणों की तरह ही पालन करना चाहिए । यदि उनके पालन में प्राण जाते हों तो भले ही जाएं, पर उनके आदेशों की अवहेलना नहीं होनी चाहिए ।' ३३. एष स्वयं शास्त्रमभिप्रयाता, ध्रुवानुसारीव सुपोतवाहः । आचारदीपं न कदापि भोक्ता, स्वमण्डलं मण्डलमण्डनो वा ॥ 'यह मुनि भारीमाल सिद्धान्तों के अनुसार स्वयं वैसे ही चलनेवाला है, जैसे ध्रुव नक्षत्र के अनुसार जहाज का निर्यामक । यह आचार रूपी दीपक को कभी भी छोड़ने वाला नहीं हैं जैसे सहस्ररश्मि सूर्य अपने मंडल को नहीं छोड़ता ।' ३४. त्रिशदाचार्य गुणागुणान्यैरस्मिन् भृताः सम्प्रविलोकितास्ते । रत्नाकरे रत्नगणा इवार्थ्यास्तारा इव व्योमतले विशाले ॥ 'रत्नाकर में अनेक अर्घ्य रत्न और भांति ही इसमें आचार्य के छत्तीस गुणों के हैं, यह मैंने स्पष्ट रूप से देखा है ।' अनन्ताकाश में असंख्य तारों की अतिरिक्त अनेक गुण भरे हुए ३५. अस्मिन् मुनित्वं परमं पवित्रं साधुत्वरीतिः परमा पवित्रा । जीवे स्फुरच्चेतनशक्तिवच्च, मया न्यभालि श्रुतलक्षणाभ्याम् ॥ ' जैसे जीव में चैतन्य शक्ति का प्रस्फुटन होता है, वैसे ही इसमें परम पवित्र श्रामण्य तथा पावन और विशुद्ध संयम रीति का संगम मैंने ज्ञान और लक्षणों से देखा है ।' ३६. प्राणांस्त्यजेदेष न किन्तु वृत्तं यथा गजेन्द्रो रणभूमिशीर्षम् । लोकप्रवाहे न कदापि वोढा, नीरागवनिश्चलनिःस्पृहात्मा ॥ 'रणभूमि के मोर्चे पर खडे गजेन्द्र की तरह ही यह भारीमाल प्राणों को छोड़ सकता है पर आचार को नहीं । यह वीतराग की भांति निश्चल और निस्पृह है । यह लोक-प्रवाह में बहने वाला नहीं है ।'

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