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श्रीभि महाकाव्यम् १६. आजन्मपञ्चेन्द्रियतीवतेजा, निरामयाङ्गो विमलो विशिष्टः । ___ आसेचना'कर्षकदिव्यमूत्तिः, सर्वो न पुष्टो न लघुर्न दीर्घः॥
आचार्य भिक्षु की पांचों इन्द्रियां आजन्म तेजस्वी रही। उनका शरीर निरोग, विमल और असाधारण था । उस दिव्यमूर्ति को देखते-देखते आंखें तृप्त नहीं होती थीं। वे न दुबले-पतले थे और न मोटे-ताजे । वे न ठिगने थे और न लंबे।
१७. अकितः कश्चिदपीडयद्यन्मलानिरोधामय' एतमाशु । लब्धावकाशः किमु नैव राहुः, सुधां किरन्तं प्रसते सुधांशुम् ॥
इस बार अचानक अतिसार के रोग ने आपको घेर लिया। क्या अवसर पाकर राहु अमृतवर्षी चन्द्रमा को ग्रसित नहीं कर लेता ?
१८. क्षमाधराणां वधताप्रपादौ, समाधिसिन्धौ शफरायितेन । सनत्कुमारास्तचक्रिणेव, क्लान्तं न किञ्चिद् व्यथयाऽधिपेन ।
क्षमाशील व्यक्तियों में अग्रणी, समाधि के गहन सिन्धु में निमग्न स्वामीजी उस व्यथा से वैसे ही व्यथित नहीं हुए जैसे अर्हत् शासन के तीर्थकर चक्रवर्ती सनत्कुमार अपने शरीर में एक साथ पैदा होने वाले सोलह रोगों से व्यथित नहीं हुए।
१९. उपासनास्यैव निराशिताऽभूज्जडस्य किं नाम करोति पूजा । साध्योऽगदङ्कारगणेन'नो स, खलोऽखलेनोपकृतोऽखलः किम् ॥
उस रोग की की गई परिचर्या जड की उपासना की भांति व्यर्थ ही गई । चिकित्सक उस पर नियंत्रण नहीं पा सके । क्या सज्जन व्यक्ति से उपकृत होने पर भी दुष्ट व्यक्ति सज्जन बन सकता है ?
२०. अनात्मसङ्ग्राममुखंकवीरो, गणेद व्ययां नो गदजामखण्डः ।
मदान्धगन्धोबुरसिन्धूरोद्घः', शक्ति परेषामिव सप्रतिज्ञः ॥
१. आसेचनकम् - जिसको देखने से नेत्र तृप्त न हों (तदासेचनकं यस्य
दर्शनात् दृग् न तृप्यति-अभि० ६७९) २. मलानिरोधामयः-अतिसार। ३. अगदङ्कारः-चिकित्सक (रोगहार्यगदङ्कारो-अभि० ३।१३६) ४. उद्घः-श्रेष्ठ (मचिकाप्रकाण्डोद्घाः प्रशस्यार्थप्रकाशकाः-अभि. ६७७)