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श्रीभिक्षमहाकाव्यम् _ 'हे महाभाग ! इस वर्ष का चातुर्मास तो आप हमारे इस सिरियारी नगर में ही बिताने की कृपा करें। जैसे मयूर और चातक मेघ की याचना करते हैं, वैसे ही हम भी आपके सान्निध्य की याचना करते हैं। आप हमें तृप्त करने की कृपा करें।'
६. तत्रापणायां परिपक्विकायां, व्योम्नीव राजा सुविराजतां तत् । अङ्गीकृतस्तद् विनयो नयज्ञः, श्रीभिक्षुराजः श्रमणाधिराजः॥
'गगनाङ्गण में चन्द्रमा की तरह ही आप वहां 'पक्की' दुकान में विराजें', आच्छाजी की इस नम्र प्रार्थना को नय-विशारद, श्रमणशेखर श्रीमद् भिक्षु स्वामी. ने स्वीकार कर लिया।
७. श्रीभारिमालो मुनिखेतसीजीः, श्रीरायचन्द्रो ह्य दयादिरामः । जीवो मुमुक्षुर्भगजीरितोद्धैः, षड्भिश्च सर्विशिनां विशिष्टः ।।
उस समय मुनि भारिमालजी, खेतसीजी, रायचन्द्रजी, उदयरामजी, जीवोजी और भगजी-ये छह संत आपके साथ थे।
८. व्योमर्तुयोगेन्दुसमासु चान्त्य, कतं चतुर्मासमगात् स तत्र । पञ्चाननाङ्कः परमः परेशः, पुरीमपापामिव तीर्थनाथः ॥
विक्रम संवत् १८६० का अंतिम चातुर्मास बिताने के लिए आप वहां पर वैसे ही गये जैसे कि अपापा नगरी में अपना अंतिम चतुर्मास बिताने के लिए सिंह के चिन्ह वाले चरम तीर्थकर भगवान् महावीर ।
९. सदाग्रहान्नननुगृह्य तिष्ठस्तत्रांशुसङ्घोंशुमतीव रम्ये । शोभान्वितं तन्नगरं वितेने, पर्जन्यकालोभ्रमिवैष भिक्षुः॥
उन सद् आग्रही श्रद्धालुओं पर अनुग्रह कर आप उस नगर में वैसे ही स्थित हो गए जैसे कि रश्मिराशि रम्य रविमंडल में स्थित हो जाता है और आपसे वह नगर वैसे ही सुशोभित हुआ जैसे वर्षा ऋतु का काल बादलों से शोभित होता है।
१०. पोरान् समुद्दिश्य स भव्यसभ्यान्, धर्मोपदेशं प्रदिदेश दिव्यम् । निपीय पीयूषमिवाङ्गिनस्ते, वत्सा इवानन्दपरायणाश्च ॥
उन्होंने वहां के शिष्ट भव्यजनों को उद्दिष्ट कर दिव्य धर्म-देशना दी। उसका अमृत की भांति पानकर वे वैसे ही आनन्दमय हो गए जैसे दूध पीकर बछड़ा आनन्दमय हो जाता है ।