________________
वर्ण्यम् :
विक्रम संवत् १८६० । आचार्य भिक्षु का अंतिम चतुर्मास सिरियारी नगरी में हुआ। उस समय आपके साथ छह संत थे। चतुर्मास में आप अतिसार रोग से ग्रस्त हुए। उपचार चला। पर वह फलदायी नहीं हुआ। धोरे-धीरे रोग बढता गया। संवत्सरी के दिन आपने तीन बार देशना दो । आपने मुनि खेतसी आदि की सेवा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा- खेतसी, टोकरजी और भारीमालजी-इन तीनों के योग से मुझे संयम साधना में बहत आनन्द मिला । इनका समर्पण और सेवाभावना अद्भुत थी।' फिर अपने उत्तराधिकारी मुनि भारीमलजी के विषय में बहुत फरमाया और यह स्पष्ट बताया कि मैंने इन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में क्यों चुना ? आपने सामूहिक शिक्षा देते हुए कहा- 'सभी परस्पर हिलमिल कर रहना । आचार्य के प्रति समर्पित तथा गण के प्रति वफादार बने रहना । वस्त्र, पात्र, शिष्य आदि की लोलुपता में मत फंसना । सुविधावाद को प्रश्रय मत देना। आचारवान् साधु-साध्वी के साथ रहना, अनाचारी से मेलजोल मत रखना।'
धीरे-धीरे शरीर शिथिल होता गया। आपने अपने समूचे जीवन की समालोचना की। सभी से खमत-खामणा किया और आत्मा की ऋजुता से दोषों का प्रक्षालन कर भाद्रव शुक्ला द्वादशी के दिन आप कच्ची हाट से पक्की हाट में पधारे और वहीं तीनों आहार का प्रत्याख्यान कर संथारा ग्रहण कर लिया। लोग रोमाञ्चित हो उठे। चारों ओर आपका यशोगान होने लगा।