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सप्तदशः सर्गः
२३१ ११. नभोम्बुवाहादिव नीरधारा, यद्देशना धर्ममयो ववर्ष । __ तत्त्वप्ररोहर्जनता समस्ता, वसुन्धरावद् हरिता मृताऽभूत् ॥
उनकी धर्मदेशना मेघ की जलधारा की भांति बरसने लगी। उससे वहां की समस्त जनता तत्त्वज्ञान से वैसे ही हरी-भरी हो गई जैसे दुर्वांकुरों से वसुन्धरा।
१२. इतो घनासारविसारभाव, इतो यतः सौव्रतसत्प्रचारः । स्पर्धा द्वयोः किं परितः प्रवृद्धा, लाभाय लोके द्विविधाऽमिताय ॥
एक ओर पानी का सुविस्तार और दूसरी ओर सुव्रतों का सत् प्रचार । द्रव्य और भाव-इन दोनों प्रकार के लाभों से वहां की जनता को अत्यधिक लाभान्वित करने के लिए ही इन दोनों में स्पर्धा हुई हो, ऐसा प्रतीत हो रहा था ।
१३. स्थानेऽत्र धर्मस्य चलद्गृहस्थारम्भा निरुद्धा अपि चोष्णतावत् । तेषां नवानां तु कर्थव कास्त्यऽहिंसा ह्यहिंसा सकले सगन्धा ।
यहां धर्मस्थान में गृहस्थों की चालू हिंसा भी वैसे ही निरुद्ध हो गई जैसे वर्षावास में गर्मी । ऐसी स्थिति में नये नये आरम्भ एवं हिंसात्मक कृत्यों की तो बात ही कहां? इस प्रकार तब चारों ओर अहिंसा ही अहिंसा की सुरभि से सारा समाज सुरभित हो उठा।
१४. आवश्यकाथ स्वशयाम्बुजेन, लेखं प्रलेखं वदते विनेयान् । .. सन्नायको नायकतां विवोढुं, निजान् निधानं नहि दर्शयेत् किम् ॥ .
अपने हाथों से लिख-लिखकर वे अपने शिष्यों को आवश्यकसूत्र का अर्थ बतलाते थे । क्या एक सन्नायक अपनी नायकता का निर्वाह करने के लिए अपने कुटुम्बियों को गुप्त निधान नहीं बतलाता ?
१५. द्विरेफवत्या स्वयमेव नित्यं, सद्गोचरी घोरतपास्तपस्वी । वृत्ति निजां गोतमवद् वितन्वन्, लेभेऽब्ज'वच्छावणपूर्णमासीम् ।।
उग्रतपा तपोधन आचार्य भिक्षु गोतम जैसी जीवनचर्या निभाते हुए भ्रमर की भांति स्वयं गोचरी करते थे। इस प्रकार वे चन्द्रमा की भांति श्रावणी पूर्णिमा को प्राप्त हुए।
१. अब्जः-चन्द्रमा (जैवातृकोब्जश्च""-अभि० २।१९)