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षोडशः सर्गः
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, जिस कार्य में मुनियों को दोष लगता है, उस कार्य में गृहस्थ को भी दोष लगता है। जो कार्य दोषयुक्त है, वह निरघ (निर्दोष) कैसे हो सकता है ?
१७८. प्रथमे करणे यत्र, पापं संयमिनां भवेत् ।
द्वितीयेऽपि तृतीयेऽपि, तत् समेषामपि स्फुटम् ॥
प्रथम करण में संयमी व्यक्ति को जहां पाप होता है तब दूसरे तथा तीसरे करण में भी स्पष्ट रूप से पाप ही होगा।
१७९. सामायिकादिहेतुभ्यः, पटादीनां विमोक्षणम् ।
व्यापारात् पुद्गलानां च, निरवद्यं न कथञ्चन ॥
सामायिकादि हेतुओं से वस्त्र आदि का विमोक्षण होता है। किन्तु पुद्गलों के व्यापार से कभी निर्दोषता नहीं होती।
१८०. दानादानव्ययादीनि, पापभाजि धनस्य हि।
त्यागः सदुपयोगोऽस्याऽऽज्ञया चेत् क्रियते तदा ॥
धन का आदान-प्रदान और व्यय करना तो पाप ही है, परन्तु आज्ञापूर्वक उसका त्याग करना धन का सदुपयोग है। १८१. अग्नेरन्याग्निनिक्षेपवववते धनार्पणम् ।
यथा तथा व्ययोप्येवं, त्यागः स न कदाचन ॥
धन को अव्रत में देना मानो एक अग्नि से निकालकर दूसरी अग्नि में डालना है । जैसे-तैसे धन का व्यय करना भी कभी त्याग नहीं कहलाता। १८२. रायां व्यापारमात्रस्य, वर्जनं पापहानये।
द्रव्यत्यागः स हि ज्ञेयो, ममत्वोत्तारणं हि तत् ।।
जो पाप टालने की दृष्टि से धन के व्यापार मात्र का त्याग करता . है, वह सही त्याग है और वही ममत्व-विसर्जन है। १८३. सावधसाधनेभ्योऽपि, व्यंहः साध्यो भवेत् फली।
तदा काञ्चनभूषापि, पित्तलात् किं न जायते ॥
यदि सावद्य साधनों से निरवद्य साध्य फलित होता है तो फिर पित्तल से भी सोने की भूषा क्यों नहीं बनेगी ? १८४. यस्मिन् सत्येव साध्यस्य, सिद्धिः स्यात्समनन्तरम् ।
यवऽभावे न यत्सिद्धिस्तद् वचंग साधनं मतम् ॥