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षोडशः सर्गः .
२२१ . वैसे ही गहस्थों के शरीर से भी दो प्रकार के कार्य होते हैंसावद्य और निरवद्य । अतः हितैषियों को कार्य आगे करके ही वर्तन करना चाहिए।
१९१. वस्त्वर्पणं मुनिभ्यश्च, व्यवसायो न पौद्गलः ।
अतिथिसंविभागस्य, व्यापारो जिनसम्मतः॥ ___साधुओं को दान देना कोई पौद्गलिक व्यापार नहीं है। वह तो जिनाज्ञा सम्मत बारहवें व्रत की प्रवृत्ति है।
१९२. दत्तं हि व्रतनिष्पत्तिाने सद्भ्यश्च सविधेः।
तद्धि तत्साधनं व्यक्तं, माजिन्यादीनि मो तथा॥
सद्विधि से साधुओं को दान देते ही व्रत की निष्पत्ति हो जाती है, इसीलिए उसको बारहवें व्रत का साधन माना है। वैसे ही प्रमार्जनी आदि रखते ही सामायिक और पौषधादिक धार्मिक क्रियाएं नहीं हो सकतीं। अतः वे धर्मक्रिया के साधन नहीं हो सकते।
१९३. जैनधर्मो जिनाज्ञायां जिनाज्ञातो बहिनं हि।
यदि स्यात्तस्य धर्मस्य, दर्शकः कः प्ररूपकः॥
जैन धर्म जिनाज्ञा में ही है, बाहिर नहीं। यदि हो तो उस धर्म का कौन तो दर्शक है और कौन प्ररूपक ?
१९४. एवं भाषाविवेकः सद्भाषासमितिसाधकः।
तवसत्त्वे च साधूना, कथं तिष्ठति साधुता॥ ___ इसी प्रकार भाषा का विवेक साधुओं के भाषा समिति का साधक बनता है। उस विवेक के बिना साधुओं की साधुता कैसे ठहर सकती है ?
१९५. सावद्यमपि मौनं स्यानिरवद्यमपि तत्र यत् । . आरम्भायेधिसावा, तदन्यनिरचं स्मृतम् ॥
मौन सावध भी हो सकता है और निरवद्य भी। जो मौन आरम्भादि को बढ़ाने वाला है वह साबध है और उससे भिन्न निरवद्य है ।
१९६. सन्तमुद्दिश्य यत्सृष्टक्रीतस्थानाशनादयः ।
पश्चात्तदानकाले किं, धर्म एवं समेष्वपि ॥