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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १७०. अत्रामुत्र यशःकीत्य, स्वाध्यायो विनयस्तपः ।
आचारश्चाहतामाज्ञाबाह्ये सर्वेपि कात्तिताः ।
इहलोक और परलोक के लिए तथा यश-कीत्ति के लिए किये गए स्वाध्याय, विनय, तप और आचार-ये सब जिनाज्ञा के बाहर हैं । १७१. तथापि विकलप्रत्याख्यानिनोऽतत्त्वदर्शिनः ।
कथं ते श्रमणश्रेण्यामवतेविचार्यताम् ॥
फिर भी अतत्त्वदर्शी, विकल-प्रत्याख्यान करने वाले मुनि साधुओं की श्रेणी में कैसे आ सकते हैं, यह विचारणीय है। १७२. धर्मोपकरणान्याहः, पोषधाद्याश्रितान्यपि ।
मालामुखपतिप्रादिमार्जनी पुस्तकानि वै ॥ १७३. परिग्रहावतागारमयानि तानि निश्चितम् ।
सूत्रकृतोपपात्यादौ, पाठरुद्घाटितः स्फुटम् ॥ (युग्मम्)
पौषध आदि धार्मिक क्रियाओं में धर्मोपकरणों के नाम से माला, मुखपति, प्रमार्जनी, पुस्तक आदि परिग्रह अव्रत और आगार में हैं। इस विषय का सूत्रकृतांग तथा औपपातिक आदि सूत्रों में स्पष्ट पाठ है ।
१७४. चतुःसुप्रणिधानानि, संयतामेव सन्त्यतिः ।
गृह्य पकरणानां च, व्यापारः सर्वयाऽघवान् ॥
चार सुप्रणिधान संयतियों के ही बतलाये हैं, अतः गृहस्थों के उपकरणों का व्यापार सर्वथा सावध है, पापमय है। १७५. तत्तेषां पौषधाधेऽपि, रक्षणं परिशीलनम् ।
ऊवधिःकरणं नूनं, सावधं यत्नयापि च ॥
इसीलिए पौषध आदि में यतनापूर्वक उपकरणों को रखना तथा सेवन करना-ऊंचे-नीचे करना निश्चित रूप से सावध है । १७६. अतिचारकहारार्थ, तत्कृतप्रतिलेखनम् ।
सावधं स्यात्तदा किन्नु, तेषां पारत्रिकी कथा ॥
केवल अतिचारों की निवृत्ति के लिए उन उपकरणों का किया गया प्रतिलेखन भी सावध है तो दूसरों का तो कहना ही क्या ! १७७. यत्कार्ये च सतां दोषस्तत् कार्ये गृहिणां स हि ।
दोषमयं च यत्कार्य, तत्कार्य निरचं कथम् ॥