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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १५६. स्वयं स्याद् गुणवान् हेतुर्बाह्योप्या भवेद् ध्रुवम् ।
निर्गुणो न कदापीज्यो, यतः पूजा गुणानुगा ॥
गुणवान् होना अर्चा का हेतु है। गुणवान् बाह्य भी अर्चनीय है। निर्गुण कभी भी अर्चनीय नहीं है, क्योंकि पूजा गुण के पीछे होती है।
१५७. हिंसाया राधना न स्याद्, गुरोर्देवस्य कहिचित् ।
दयाधर्मो जिनेन्द्रण, प्राधान्येन प्ररूपितः॥
गुरु और देव की आराधना कभी भी हिंसा से नहीं हो सकती। जिनेन्द्र भगवान् ने प्रधानरूप से दयाधर्म का ही प्ररूपण किया है। १५८. रक्ता मत्ता वृथाऽक्षेपे, निन्दकास्ते हि सम्मताः।
दोषास्त्रयोदशास्तेषां, वाण्या प्रश्नाङ्गसूत्रतः॥ . जो वृथा आक्षेप करने के लिए रक्त और मत्त रहते हैं, वे निन्दक हैं। उनकी वाणी में तेरह दोष होते हैं, यह प्रश्नव्याकरण सूत्र का कथन है। १५९. व्यर्थशत्रुकरः क्लेशकरो दुर्गतिदायकः।
हेयः परापवादो हि, सुकृतिभिर्भुजङ्गवत् ॥
परनिन्दा व्यर्थ शत्रु और क्लेश पैदा करने वाली तथा दुर्गति देने वाली है। अतः धार्मिकों को उसे भुजंग की तरह छोड़ देना चाहिए।
१६०. सप्रमाणं विना द्वेष, सद्भूतार्थोपदेशकम् ।
माध्यस्थ्येन यल्लपनं, सा न निन्दा प्रकीत्तिता ॥
द्वेष रहित, सप्रमाण तथा माध्यस्थ भाव से जो यथार्थ कथन किया जाता है, वह निन्दा नहीं कहलाती।
१६१. यत्किञ्चित् कयनं नजं, तन्न निन्दा परस्य च ।
यथार्थमपि निन्दा स्यात्, कुतस्त्योऽयं नयो भवेत् ॥
अपनी ओर से तो जो कुछ भी कहा जाए वह निन्दा नहीं, परन्तु पर का यथार्थ कथन भी निन्दात्मक माना जाए, यह कहां का न्याय है ?
१६२. विषकष्टकसर्पाद्यान्, वर्जयित्वा परिव्रजेत् ।
कोवृक् परापवादोऽत्र, कास्ति तत्राऽवहेलना ॥
विष, कण्टक तथा सर्प आदि का वर्जन कर चलना चाहिए-इस कथन में कैसा परापवाद एवं कौनसी अवहेलना ?