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षोडशः सर्गः
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. वहां कभी जीव मरे या न मरे किंतु प्रतिलेखन न करने के कारण वे मुनि विधि से च्युत हैं, इसलिए वे घातक हैं। १३५. विधिनाऽतो विधेयं स्यात्, प्रत्यहं प्रतिलेखनम् ।
आलस्यं सर्वया हेयं, भण्डोपकरणेक्षणे ॥
इसलिए विधानपूर्वक प्रतिदिन प्रतिलेखन करना चाहिए । भण्डोपकरण के प्रतिलेखन में आलस्य सर्वथा हेय है । १३६. पातुं मोक्तुं गृहस्थानां, भाजनेषु यथारुचि। . ..
भुक्तपीताः पुनर्दद्युः, शीतं कृत्वा जलादिकम् ॥
१३७. गृहिकुण्डाद्यमत्रेष्वाहारपानादि साधूनाम् ।
मुजानानां सदाचारः, परिभ्रश्यति निश्चयात् ॥
१३८. दशवकालिकात् षष्ठाध्ययनात्तेन मुमुक्षवः ।
केवलं सुविधाकृष्टा, जिनाज्ञाप्रतिगामिनः ॥ (त्रिमिविशेषकम्)
जो मुनि गृहस्थों के भाजन में खा-पीकर तथा पानी आदि को ठण्डा कर बर्तनों को वापिस सौंप देते हैं, वे दशवकालिक के छठे अध्ययन के अनुसार अपने मुनि-आचार से स्खलित हैं। वे केवल सुविधावाद से आकृष्ट हैं और जिनाज्ञा के प्रतिगामी हैं। १३९. पीठफलकपट्टादीनानीयगृहमेधिनः ।
प्रत्यर्पणपराचीनाः, सीमोल्लङ्घनसेविनः॥
गृहस्थ के घर से पीठ, फलक, पट्ट आदि लाकर जो वापिस नहीं सौंपते, वे सीमा का उल्लंघन करने वाले हैं। १४०. भवेयुस्ते कथं सन्तो, जैनाचारविलोपिनः।
निशीथान मासिकं दण्डं, प्राप्नुवन्ति तथाकराः॥
जैन मुनि के आचार का लोप करने वाले वे साधु कैसे हो सकते हैं ? ऐसे मुनियों के लिए निशीथ सूत्र में मासिक दंड का विधान है। .. १४१. आहारादिकवस्तूनां, दर्शयित्वा प्रलोभनम् ।
विप्रतार्याऽबुधान् क्वापि, नीत्वाऽन्यत्र प्रपञ्चतः ।। १४२. मुण्डयेयुर्मतोत्सर्प, शिष्यसंख्याप्रलोमिनः ।
बुध्येरंस्ते कथं सन्तो, नेपथ्यपरिधापकाः ।। (युग्मम्)