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षोडशः सर्गः
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वैसे ही व्यवहार सूत्र के अनुसार अकेली या दो साध्वियों को भी कभी विचरना नहीं कल्पता ।
१२१. साध्वी त्वेकाकिनी स्थानाद्, बाह्येप्येतुं न शक्यते ।
गोचर्यां स्थण्डिलावन्यां, कुत्राप्यन्यत्र कार्यतः ॥
अकेली साध्वी गोचरी या स्थण्डिल के लिए या अन्य कोई कार्य के लिए स्थान से बाहर भी नहीं जा सकती ।
१२२. व्यवहारे बृहत्कल्पे, चोद्देशे पञ्चमे त्विदम् । निषिद्धं वीतरागेण, त्रैकालिक हितार्थिना ॥
व्यवहार एवं वृहत्कल्प के पांचवें उद्देशक में त्रैकालिक हितार्थी वीतराग प्रभु ने यह निषेध किया है ।
१२३. द्विपञ्चाशदनाचारा, द्विचत्वारिशिनस्तथा । दोषास्तत्सेविनः सूत्राद्, भवेयुः साधवो न ते ॥
भगवान् ने सूत्र में बावन अनाचार और बयालीस दोष बतलाये हैं; उन दोषों का सेवन करने वाले साधु नहीं होते ।
१२४. पञ्चाक्षविषयान् पञ्चस्वाध्यायान् परिवयं च । कायमानमधोमार्ग, पश्यन्तो यान्तु साधवः ।
संतों को पञ्चेन्द्रियों के विषय एवं पांच प्रकार के स्वाध्याय को वर्जते हुए और अपने कायाप्रमाण मार्ग को देखते हुए गमन करना चाहिए ।
१२५. आशां कामयमानेन, वीतरागस्य शोभनाम् । ईर्यासमितिरक्षाभिर्वर्तनीयं पथान्तरे ॥
जो वीतराग प्रभु की आज्ञा को पालने के इच्छुक हैं, उन संतों को पथ समितियुक्त होकर चलना चाहिए ।
१२६. निरङ्कुशे भवद्येषां निस्खलीनाश्ववद्गतिः । जिनाज्ञालोपिनी ये ते, नाममात्रेण साधवः ॥
निरंकुश हाथी तथा बिना लगाम के घोड़े की भांति जो गति करते है, वे जिनाज्ञा का लोप करने वाले नाम मात्र के साधु हैं ।
१२७. अधिको पधिरक्षायां, मर्यादापरिलोपिनाम् । निशीथे षोडशोद्देशे, प्रावृष्यं दण्डमूचिवान् ॥