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षोडशः सर्गः
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उसके लिए भगवान् ने निशीथ सूत्र में कठोर दण्ड कहा है और दशवकालिक सूत्र में अनाचार भी कहा है । १०७. असौ सबलदोषोऽपि, शील्यते लोलुपर्बहु ।
न मन्यन्ते प्रभोराज्ञां, ते कथं सन्ति साधवः ॥
यह सबल दोष भी है। जो लोलुपता से इसका सेवन करते हैं और प्रभु की आज्ञा को नहीं मानते, वे साधु कैसे हो सकते हैं ? १०८. सन्मुखानीतलातारस्तेऽपि भ्रष्टा मुनित्वतः ।
दशवकालिकात् सूत्रादनाचारोपसेविनः ।
सन्मुख लाए हुए आहार आदि लेने वाले मुनि भी अपने मुनित्व से भ्रष्ट हैं और दशवैकालिक सूत्र के अनुसार अनाचारी भी। १०९. आलिकाविष निक्षिप्य, स्वोपाधीन् कृतमुव्रितान् ।
मासषण्मासतो वाऽपि, तेषामप्रतिमोक्षणात् ॥
११०. तत्र तज्जीवजालानि, मक्षन्त्यनेकशः पुनः ।
उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते, भूयांसः प्राणिनां गणाः॥ (युग्मम्)
मुनि अपनी उपधि को आलों में, अलमारियों में रखकर और उनको बंद कर महीनों या छह महीनों तक भी उन्हें खोलकर नहीं देखते। वहां अनेक जीवों के जाले जम जाते हैं और अनेक जीव उत्पन्न होते हैं तथा मरते हैं ।
१११. अप्रतिलेखनासीमा, तेषां चरमावधि गता।
तादृशां यतिनामन्तःकरणाद् व्यपगता क्या ॥
ऐसे संतों की अप्रतिलेखना की सीमा तो मानो चरमावधि तक पहुंच जाती है और उनके अन्तःकरण से दया निकल जाती है।
११२. आलिकादिषु निक्षिप्य, स्वोपाधीन भारभीतितः।
विश्वस्तानां गृहस्थानां, तालीरक्षा समर्प्य च ॥
११३. विहरेयुस्ततः पृष्ठे, मुच्यन्ते श्रावकाः कदा।
मासषणमासतो वा पि, तानुपधीन्निजेच्छया ॥
११४, उत्पन्ना जन्तवस्तत्र, नियन्ते तेन पापतः। उभौ साधुगृहस्थो तो, लिप्यतो धिक् ततो हि तान् ॥ .
(त्रिमिविशेषकम्)