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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् कुछ मुनि भारादिक के भय से अपनी उपधि को आलों आदि में रखकर उसकी रक्षा के लिए विश्वस्त गहस्थों को चाबी सौंपकर विहार कर जाते हैं, और पीछे श्रावक अपनी इच्छा से कई महीनों के बाद देखते हैं तो वहां जो उत्पन्न हुए जीव मरते हैं, उनके पाप से साधु और श्रावक-दोनों ही डूबते हैं।
११५. बिना कारणमेकत्र, चतुर्मासाच्च मासतः ।
अधिकस्थायिनः सन्तो, मर्यादाभंगकारकाः ॥ ____ जो मुनि बिना रोग आदि कारण के एक ग्राम में चातुर्मास के सिवाय एक महीने से अधिक रहते हैं, वे जिनोक्त मर्यादा को लांघने वाले
११६. एकद्वारे पुरे प्रामे, पाटके च पटीयसाम् ।
युगपत् साधुसाध्वीनां, वसनं नैव कल्पते ॥
पुर में या ग्राम में जहां यातायात का एक ही द्वार हो, वहां साधुसाध्वियों को एक साथ रहना नही कल्पता।
११७. एकस्माद् गोपुरान् मार्गाच्छौचायं च गतागतम् ।
कल्पते नैव साधुभ्यः, साध्वीभ्योऽपि कदाचन ॥
जहां एक ही दरवाजे से शौच के लिए आने-जाने का मार्ग हो, वहां पर साधु-साध्वियों को रहना नहीं कल्पता ।
११८. तयोरेकपथाद्गत्यागतिभ्यां प्रत्ययक्षयः।
व्रते भंगव्यवस्थापि, सुलभा भवितुं यतः॥
इस प्रकार साधु-साध्वियों का एक ही द्वार से यातायात होने से विश्वास उठ जाता है और व्रतभंग की संभावना भी सुलभ हो जाती है।
११९. विना कारणमेकाकी, सत्सु चान्येषु सन्मुनिः ।
क्वापि वस्तुं न शक्येत, दुःषमारे विधानतः ॥
इस दुःषम काल कलियुग में अकेला मुनि बिना प्रयोजन रह नहीं सकता । उसके साथ भावित्मा मुनि होना चाहिए, यह विधान है ।
१२०. तथैवैकाकिनी साध्वी, वे साध्व्यावपि कहिचित् ।
अवस्थातुं न शक्येतां, व्यवहारागमशासनात् ।।