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श्रीमिअमहाकाव्यम् जो राग-द्वेष को जीतने वाले हैं, सर्वज्ञ हैं, जिनके आगम-आज्ञा अखण्डित हैं तथा जो इन्द्रों से पूजनीय एवं जगन्नाथ हैं, उन जिनेश्वर देव को देवरूप में स्वीकार करो। ६०. समित्या गुप्तिसंयुक्तः, पञ्चोखतपालकः ।
मूलोत्तरगुणाऽखण्डः, सर्वथा सुगुरुर्मतः ॥ _जो समिति और गुप्ति से संयुक्त हैं, पांच महाव्रतों के धारक हैं और जो सर्वथा मूलोत्तर-गुणों से अखण्डित हैं, उनको गुरु मानो। ६१. अहिंसाशुभभावादिस्तन्मयः परमङ्गलः। - केवल्युक्तो जिनेन्द्राज्ञाकेतुधर्मो हि सम्मतः॥ ...जिसकी आदि में अहिंसा और शुभ भावना है, जो अहिंसा और शुभ भावमय है, जो परम मंगल है, जो केवली द्वारा प्रज्ञप्त है तथा जो वीतराग की आज्ञा में है, वही धर्म है। ६२.षद्रव्यनवतत्त्वादिरत्नत्रिकपरीक्षकः। तस्य स्वान्ते शुभश्रद्धादेवी सम्यग विराजते॥
जो षड्द्रव्य, नवतत्त्व एवं रत्नत्रयी के परीक्षक हैं, उनके हृदय में श्रद्धारूपी देवी विराजती है । ६३. जनप्रवचने दोषर्मक्ता विश्वसितिर्वरा।
रुच्या रुचिः प्रतीतिश्च, सा श्रद्धा जिनशासने ॥
जिनशासन में वही श्रद्धा मान्य है जो जन प्रवचन में दोषों का उद्भावन नहीं करती, जैन प्रवचन पर अत्यन्त विश्वास रखती है, उसमें अच्छी रुचि तथा प्रतीति वाली है। ६४. येन तत्त्वं विबुध्येत, येन चित्तं निरुध्यति । येन ह्यात्मा विशुद्धचेत, तज्ज्ञानं जिनशासने ॥
जिससे तत्त्व का बोध हो, जिससे चित्त का निरोध हो, जिससे आत्मा की शुद्धि हो, जिनशासन में वही ज्ञान ज्ञान है। ६५. येन रागा विरज्यन्ते, येन श्रेयसि रज्यो । येन मैत्री भवेत् सर्वस्तज्ज्ञानं जिनशासने ।।
जिससे राग दूर हो जाते हैं, जिससे कल्याण में अनुरक्ति होती है, जिससे सबके साथ मंत्री होती है, जिनशासन में वही ज्ञान ज्ञान है।