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श्रीनिलमहाकाव्यम् ७४. इत्यं भगवतां नाम्ना, भगवन्नामलज्जकाः। आधाकर्माविदोषोत्काः, सन्तस्ते किन्नु तारकाः॥
(चतुभिः कुलकम्) हे श्रावको ! जो दया के रूप में हिंसा का प्रचुर प्रचार करने वाले, आहार-लोलुप, मान को छोड़कर गृहस्थों के मुंह ताकने वाले, ज्ञान के लिए गृहस्थों से धन दिलाकर पुस्तकें खरीदने वाले, वेतनग्राही पाठकों से पढ़ने वाले, धर्म के नाम पर गृहस्थों को दारुण हिंसादि कार्य में प्रेरित करने वाले, प्रतिमा पूजा के आडम्बर में तत्पर, भगवान् के नाम को लजाने वाले और आधाकर्मादि दोषों में जो उत्सुक हैं, वे मुनि क्या तारने के लिए समर्थ हो सकते हैं ? ७५. तादृशा गुरवो हेयाः, श्राद्धानुपविदेश सः। __होनाचारिगुरोः सेवाऽधोऽधः पतनकारिणी॥
स्वामीजी ने श्रावकों को यह उपदेश दिया कि ऐसे गुरुओं को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि हीनाचारी गुरुओं की सेवा नीचे से नीचे नरक में ले जाने वाली होती है। ७६. हीनाचारिगुरोर्दोषगोपनं मौर्यमुत्कटम् । ततो गुरोश्च भक्तानां, निश्चितं पतनं मतम् ॥
हीनाचारी गुरुओं के दोषों को छिपाना उत्कृष्ट मूर्खता है । इससे गुरु और भक्तों का निश्चित पतन होता है। ७७. शशंस पुनराचार्यो, यः कोऽपि श्रमणो भवेत् । सर्वसावधकार्याणां, प्रत्याख्याता त्रिधा त्रिधा ।।
स्वामीजी ने यह पुन: बतलाया कि जो कोई श्रमण होते हैं वे तीन करण एवं तीन योग से समस्त सावध कार्यों का प्रत्याख्यान करते हैं। ७८. अष्टादशतमस्त्यागी, मुनिमहाव्रती सदा ।
तन्छामण्याभिरक्षार्थमनेके नियमाः कृताः॥ ___ अठारह प्रकार के पापों के त्यागी मुनि महाव्रती कहलाते हैं । उनके साधुत्व की रक्षा के लिए भगवान् ने अनेक नियम बनाए हैं। ७९. अवश्याराधनीयास्ते, मूलधर्माभिरक्षिणः । मूलातेषां महत्त्वं नो, नयून्यमधिगच्छति ॥
उन नियमों की आराधना अवश्य ही करनी चाहिए क्योंकि मूल महाव्रतों से उन नियमों की महत्ता कम नहीं है ।