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पोशः सर्गः २०. शुद्धतादृढतापूर्वमुत्तरान्नियमान्न यः।
पालयेत् सोऽचिरान्मूल, धर्म चापि विनाशयेत् ॥ ___जो पवित्रता एवं दृढ़तापूर्वक उन नियमों का पालन नहीं करते वे शीघ्र ही मूल नियमों को भी खो बैठते हैं, महाव्रतों को भी गवां देते हैं । ८१. संकोचलमणाः शुद्धया, वाढ्योद्देश्य विनिर्मिताः । - पोषका मूलधर्माणां, ते ह्य पनियमा मताः॥
पवित्र भावना से तथा श्रामण्य की दृढ़ता के उद्देश्य से निर्मित, संकोचलक्षण वाले अर्थात् सीमा करने वाले एवं मूल धर्म का पोषण करने वाले जो नियम हैं, वे उपनियम कहलाते हैं। . ८२. आचार्यकी पुनः सौत्री, मर्यादापि तथा विधा।
सूत्रसाक्षीयुता सौत्री, परावृत्त्या न करपि ।।
मर्यादा दो प्रकार की होती है-आचार्यकृत तथा सौत्री-आगमकृत। सूत्रसाक्षीयुक्त मर्यादा सौत्री मर्यादा कहलाती है। वह किसी के द्वारा बदली नहीं जा सकती।
८३. आचार्यकी द्वितीया सा, देशकालानुसारिणी। यथेष्टं संयमोत्सपिपरावृत्तिसहा च तैः॥
दूसरी मर्यादा आचार्यों की है । वह आचार्यों के द्वारा देश, काल के अनुसार, जहां संयम की वृद्धि होती हो, आचार्यों के द्वारा बदली जा सकती
८४. निर्दोषविषये शास्त्रात्, काठिन्यादिप्रयोजनात् । आचार्याीः कृता या सा, मर्यादा परिकीत्तिता ।।
शास्त्रों के अनुसार जो निर्दोष है, परन्तु विशेष दृढ़ता आदि के प्रयोजन से जो मर्यादा आचार्यों द्वारा बांधी जाती है वह आचार्यों की मर्यादा या गण की मर्यादा कहलाती है।
८५. क्षेत्ररक्षाकृते रक्ष्याऽवश्यं वृत्तिविशेषतः । तया हि पालनीयास्ते, उत्तरा नियमाः समे ॥
खेत की रक्षा के लिए बाड़ करनी जरूरी है । वैसे ही मूल महाव्रतों की रक्षा के लिए उत्तर नियमों का पालन जरूरी है । ५६. क्षेत्रसंरक्षिका क्षेत्रात्, सा विभिन्ना न कहिचित् ।
वोधनीया तदङ्गानुरूपाऽवश्यं तथा हि ते ॥