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षोडशः सर्गः
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तुम कुगुरु के पैरों में सिर रगड़-रगड़ कर तिक्खुत्ते के पाठ से तीन बार वन्दना करते हो और झूठ बोलते हो तो बोलो, तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ?
पापहेतुर्धर्महेतुस्ततोऽपरम् ।
इयदपि न वेत्थ वो, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥
५३. साघकार्यं
सावा कार्य पाप के हेतु हैं और निरवद्य कार्य धर्म के हेतु हैं, इतना भी तुम नहीं जानते तो तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ?
५४. द्रव्यादिकरणैर्योगभिवां
बोधविवजिताः ।
निक्षेपा विदितास्तद् वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥
तुम्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और करण - योग के भेद और निक्षेपों का बोध तक नहीं है तो तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ?
५५. धर्मं मत्वाऽव्रते दत्तं सत्यापनमधोभुवः । जिनेन्द्राज्ञानभिज्ञा वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥
तुम जिनाज्ञा से अनभिज्ञ हो अतः धर्म मानकर अव्रत में दान देते हो । क्या वह नरक की साई नहीं है ? तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ?
५६. मिथ्यामहत्त्वमानेभ्यो,
न्यायरिक्तातिपाणयः ।
व्यर्थ पक्षावसन्ना वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥
तुम मिथ्या बड़प्पन और मिथ्या मान के भूखे होकर न्याय से रिक्त एवं मिथ्या पक्षपात में सने हुए हो। तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ?
५७. मिथ्याहेतुप्रयोगाद्यै जिनानुशासनाद् बहिः ।
धर्माभिदर्शकास्तद् वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥
मिथ्या हेतु एवं मिथ्या प्रयोगों से जिनाज्ञा के बाहर भी धर्म मानते हो तो तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया
५८. यदि दक्षास्तवा तत्वत्रय्याः सद्गुरुसङ्गतः ।
निर्णयं मेधया कृत्वा, श्राद्धा भवतः सद्व्रताः ॥
यदि तुम दक्ष हो तो सद्गुरु की संगति से देव, गुरु और धर्म - इस तत्त्वत्रयी का निर्णय कर सद्व्रतों के धारक श्रावक बनो ।
५९. रागद्वेषविनिर्मुक्तः सर्वज्ञोऽखण्डितागमः । शक्रपून्यो जगन्नाथो, धार्यो देवो जिनेश्वरः ॥