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योग्यः सर्गः
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गुरु-शिष्य में सदाचार का ही सम्बन्ध होता है । जो सदाचार से शून्य हैं, उनके प्रति जो स्नेह है उसको तिनखे की भांति तोड़ देना चाहिए ।
२७. गुणानामर्चना पूजा, प्रज्ञप्ताऽतो विनिर्गुणः । निर्गन्धपुष्पवत् प्रोज्यस्तत्त्वातत्वविवेकिमिः ॥
गुणों की ही अर्चा-पूजा बतलाई गई है। अतः तत्व-अतत्व का विवेक करने वाले मनुष्यों को चाहिए कि वे निर्गुण गुरु को निर्घन्ध पुष्प की भांति छोड़ दे। २८. स्वर्णस्यापिण्रिका कि, क्षेप्या स्वीयोदरे भवेत् । तेन स्वर्णेन कि कार्य, कर्णविच्छेवनं यतः ॥
क्या सोने की छुरी अपने उदर में मारने के लिए होती है ? उस स्वर्ण-कुंडल से भी क्या प्रयोजन जो कानों को काट डालता है ? ।
२९. गुरुर्गुरुरिति व्यर्थ, पूत्कृभिर्ने ति शोच्यते । कुगुरोः पूजको नूनं, बम्ञमीति भवान्तरे ॥
'गुरु'-'गुरु' ऐसे व्यर्थ पुकार करने वाले यह नहीं सोचते कि कुगुरु की पूजा करने वाला निश्चित ही जन्म-मरण के चक्रव्यूह में घूमता रहता
३०. गम्भीरघोषणामेता, स्वामिनां सुप्रमाणिकाम् । निशम्याऽजनि सज्योतिर्जागरा मोहमदिनी ॥
स्वामीजी की यह प्रमाणयुक्त गम्भीर घोषणा को सुनकर लोगों में मोह का मर्दन करने वाली प्रकाशमय ज्योति जागृत हुई ।
३१. विषमोपि नयो ग्राह्यः, स्वामिनां समजायत । · कृततीर्थो मनोहारी, पयसामाधयो यथा ॥
जैसे विषम सरोवर भी मनोहर घाटवाला होकर गाह्म बन जाता है, वैसे ही स्वामीजी का कठोर न्याय भी उपादेय बन गया।
३२.सुलभाः सन्ति संसारे, सततं प्रियवादिनः।
दुर्लभाः प्रस्तुते तथ्यपथ्यकृत्याध्वदर्शकाः ॥ __संसार में निरंतर मीठे बोलने वाले सुलभ हैं, परंतु सारभूत, हितकारी, कर्त्तव्य-निर्देशक और मार्गदर्शक दुर्लभ हैं।