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षोडशः सर्गः
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साधुओं पर द्वेष करना, असाधुओं पर राग करना, शुद्ध आचार को प्रगट नहीं करना और अन्धश्रद्धा तथा अन्धानुकरण करना-ये ही उस समय की संपदाएं थीं ।
१४. हीनाचारविचाराणां, शुद्धत्वेन निरूप्य च । स्वप्रतिष्ठावने दम्भान्दोलनं तद् विशेषता ॥
हीन आचार और हीन विचार को शुद्ध दिखलाना तथा अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए दाम्भिक आन्दोलन करना ही उस समय की विशेषता थी ।
१५. कदाचारकुरङ्गाणां,
श्रासने सिंहनादवत् ।
प्रवृत्तः स्वामिनां घोषो, वक्ष्यमाणो निशम्यताम् ॥
ऐसे कुत्सित आचार रूप मृगों को संत्रस्त करने के लिए स्वामीजी का सिंहनाद की भांति घोष हुआ, जिसका वर्णन आगे किया जाता है, ध्यान
सुनें ।
१६. विनयमूलधर्मोऽस्ति, वीतरागप्रभोः सदा ।
परन्तु तस्य मर्मज्ञो, विरलः कोऽपि लक्ष्यते ॥
राग प्रभु का धर्म विनयप्रधान है, परन्तु उसका मर्मज्ञ कोई विरल व्यक्ति ही होता है ।
तद्गुरौ गुरुतायुते ।
गुरौ गुरुगुणहोंने, विनयोऽपि त्रपास्पदम् ॥
१७. विनयेषु बलं दत्तं
इस वीतराग प्रभु के धर्म में गुरुता युक्त गुरु के प्रति ही विनय का प्रयोग करने पर बल दिया गया है । जो गुरु गुरु के गुणों से रहित होता है, उसके प्रति प्रयुक्त विनय भी लज्जास्पद बन जाता है ।
१८. असद्गुरौ विनयत्वंनंहि निस्तरणं भवेत् । सदसद्गुरुविज्ञानविहीनं जन्म निष्फलम् ॥
असद् गुरु के प्रति प्रयुक्त विनय से भव सागर से निस्तार नहीं हो सकता । सद् और असद् गुरु की पहचान के बिना नरजन्म व्यर्थ है ।
१९. कश्चिद् ब्रूयाद् गुरुस्तातो, द्वितीयो न कदाचन । इष्टोऽनिष्टस्तथापीह, त्यज्यते किं मनीषिभिः ॥
कोई यह बात कहता है कि गुरु और पिता दूसरे नहीं हो सकते । वे चाहें अच्छे हों या बुरे, क्या बुद्धिमान् व्यक्ति उनको छोड़ देते हैं ?